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Friday, March 8, 2019

ग़रीब हैं मगर खुद्दार हैं हम

कुछ कहते हैं ये ताँँका


 
उठायें बोझ

सारे जग का हम

और हमारा ?

बोलो कौन उठाये ?

 सीने से चिपटाये ? 

 
क्या दोगे तुम

          किताब या कुदाल ?         

खुशी या आँसू ?

खिलौने या फावड़ा?

जीवन या मरण ?

 

जाती बाहर 
 
रोटी की जुगत में

  माँ काम पर   

मैं हूँ घर की रानी

  करती चौका पानी ! 


हर चुनौती

आसान या मुश्किल

साध्य है मुझे !

नहीं स्वीकार अब

  वर्चस्व पुरुषों का ! 



  ओ मेरे मौला  

माथे पे गहराती

चिंता की रेख

सोने की कलम से
  
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