आज की पीढ़ी फ़ास्ट ट्रैक पर चलने वाली पीढ़ी है !
सब कुछ मिनटों में मिलना चाहिए ! पसंदगी भी, आकर्षण भी, प्रेम भी और परिवार भी !
पहले नानी दादी की रसोई में जो चावल सौंधी-सौंधी खुशबू के साथ घंटों में दम होकर
पकते थे अब आधुनिक रसोई में चुटकियों में पकते हैं ! स्वाद गंध वैसी हो न हो पेट
भरने का काम ये भी करते हैं ! नानी दादी की रसोई घंटों की मेहनत मशक्कत का परिणाम
होती थी तो उसमें स्वाद, सुगंध के साथ परिश्रम और प्रेम का सम्मिश्रण भी होता था
और सम्मान और समर्पण के रुपहले सुनहरे वर्क भी लगे होते थे ! इसीलिये उसमें स्थाईत्व भी होता था ! आज
के युग की इंस्टैंट रसोई की कोई मिसाल नहीं ! लेकिन यह भी सच है कि मिनटों में पकने वाली डिश किस्मत
अच्छी हुई तो स्वादिष्ट भी बन सकती है और जो न हुई तो खराब भी हो सकती है ! उसे
कूड़े के डिब्बे में फेंकने में ज़रा भी दुःख नहीं होता ! आज के युग में रिश्तों का
भी यही हाल है ! आनन फानन में कायम किये गए रिश्तों में केवल ऊपरी सज्जा सजावट तो ज़रूर शानदार होती है लेकिन वह उतनी जी जल्दी उतर भी जाती है और फिर सामने आ जाता है रिश्तों का वास्तविक
अनाकर्षक रूप जिनमें न तो गहराई होती है, न ही प्रेम की गर्माहट होती है, न
रिश्तों के प्रति कोई सम्मान होता है न उन्हें समेट कर सहेज कर रखने की चाहत ही होती
है ! जहाँ भावनाएं न हों, समर्पण न हो, त्याग न हो वहाँ रिश्तों के स्थाईत्व के
बारे में सोचना उसी तरह बेमानी है जैसे किसी निर्मूल पौधे को पानी में डुबो कर
रखने के बाद उसमें किसी कोंपल के फूट आने की आशा रखना ! जिस वस्तु को प्राप्त करने
में कठिन तपस्या करनी पड़ी हो उसकी कीमत अनमोल हो जाती है और वह वस्तु प्राणों से
भी प्यारी हो जाती है लेकिन जो चीज़ सहज ही मिल जाए उसका कोई मोल नहीं होता न ही
उसका महत्त्व कोई आँक पाता है ! ऐसे रिश्ते असमय ही काल कवलित हो जाते हैं ! और उनसे
जुड़े लोग भी ‘तू नहीं और सही’ गुनगुनाते हुए किसी और आँचल की छाँव तलाशने के लिए आगे
चल देते हैं !
साधना वैद
कितनी सहजता से आपने आज के दौर के रिश्तों का विश्लेषण कर दिया। एकदम सच लिखे हैं आप।
ReplyDeleteसादर प्रणाम।
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जी नमस्ते,
आपकी लिखी रचना शुक्रवार ३१ जनवरी २०२५ के लिए साझा की गयी है
पांच लिंकों का आनंद पर...
आप भी सादर आमंत्रित हैं।
सादर
धन्यवाद।
यूज एंड थ्रो के इस युग में रिश्ते फास्ट ट्रेक तो सचमुच हो ही गए हैं दीदी.
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