जाने कैसे सावन
में मेरा ये मन बँट जाता है !
‘पी’ घर ‘बाबुल’, ‘बाबुल’ के घर ‘साजन’ क्यों तरसाता है
बैठी हूँ बाबुल के अँगना झूल रही हूँ झूले पे
पर कजरी का हर मुखड़ा प्रियतम की याद दिलाता है !
सीला सावन, तृषित तन मन, दूर सजन
गाते विहग, सुरभित सुमन, पुलकित पवन
सावन आया, रिमझिम फुहार, झूमी धरा
भीगे नयन, व्याकुल है मन, आओ सजन !
चित्र - गूगल से साभार
साधना वैद
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