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Friday, August 1, 2025

दो - मुक्तक - सावन

 



जाने कैसे सावन में मेरा ये मन बँट जाता है !
‘पी’ घर ‘बाबुल’, ‘बाबुल’ के घर ‘साजन’ क्यों तरसाता है
बैठी हूँ बाबुल के अँगना झूल रही हूँ झूले पे 
पर कजरी का हर मुखड़ा प्रियतम की याद दिलाता है !  


सीला सावन, तृषित तन मन, दूर सजन 
गाते विहग, सुरभित सुमन, पुलकित पवन
सावन आया, रिमझिम फुहार, झूमी धरा  
भीगे नयन, व्याकुल है मन, आओ सजन !


चित्र  - गूगल से साभार 

साधना वैद 

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