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Thursday, November 10, 2011

मध्यम वर्गीय मानसिकता और दहेज प्रथा


दहेज विरोधी अनेकों अभियानों, आन्दोलनों तथा प्रचारों के उपरान्त भी दहेज के अभिशाप से अभी तक समाज मुक्त नहीं हो सका है ! लगभग प्रतिदिन ही समाचार पत्रों में दहेज प्रेमी स्वजनों से प्रताड़ित बहुओं की करुण कथाएं प्रकाशित होती रहती हैं ! कुछ समय पूर्व जब तक केबिल टी वी ने अपने पैर इतने नहीं पसारे थे रेडियो तथा दूरदर्शन पर भी दहेज विरोधी वार्ताएं, नाटक, झलकियाँ इत्यादि का प्रसारण बड़ी जोर शोर से किया जाता था ! जागरूक कलम के सिपाहियों ने भी पत्र पत्रिकाओं में लेख, कहानियाँ, कवितायें या व्यंग लिख कर पाठकों के विवेक को इस दहेज रूपी दानव से बचाने हेतु नाना प्रकार से अभिमंत्रित करने के यथासाध्य प्रयत्न किये लेकिन फिर भी दहेज के लालची लोगों की आँखों से लोभ और लालसा की पट्टी नहीं उतार पाये !

दहेज की इस विकराल समस्या से सर्वाधिक रूप से हमारे समाज का मध्यम वर्ग ग्रस्त एवं त्रस्त है ! यह बीमारी सबसे अधिक इसी वर्ग में व्याप्त दिखाई देती है ! इसी वर्ग में इस कुप्रथा के सबसे बड़े पोषक व समर्थक भी मिल जाते हैं और इसके चंगुल में फँसे छटपटाते निरीह शिकार भी दिखाई दे जाते हैं ! समाज की संरचना में मध्यम वर्ग की भूमिका सबसे अधिक महत्वपूर्ण होती है ! उच्च वर्ग के मुट्ठी भर लोगों का प्रतिशत तो बहुत कम होता है निम्न वर्ग के लोगों में भी यह प्रथा इतनी गहराई से अपनी जड़ें नहीं जमा पाई है कदाचित इसलिए कि ना तो इन लोगों में इतनी अधिक लालसा और महत्वाकांक्षाएं हैं कि उन्हें पूरा करने के लिये ये कुछ भी कर डालें ना ही विवाह सम्बन्ध के टूट जाने से समाज में प्रतिष्ठा भंग हो जाने का भय है ! दहेज लेने देने की हैसियत ना होने के लिये उन्हें समाज या बिरादरी के सामने नाक कट जाने की चिंता नहीं होती ना ही वे किसी भी तरह से धर्म या समाज के निर्धारित किये हुए नीति नियमों की चिंता करते हैं ! उनके लिये विवाह किसी बंधन का नाम नहीं है जिसे उन्हें आजीवन निभाना है ! उनके लिये तो यह खुशी का सौदा है ! जब तक साथ अच्छा लगा साथ रह लिये जब जीवन में कटुता आ गयी तो अलग हो गये ! इसीलिये शायद उसे बचाए रखने के लिये ससुराल पक्ष की माँग या शर्त को आजीवन मानते रहने की भी कोई बाध्यता नहीं है ! पाश्चात्य जीवन शैली को शायद इस वर्ग ने अनजाने में ही सबसे अधिक आत्मसात कर लिया है ! दहेज की दौड़ में तो हमारा मध्यम वर्ग ही सबसे आगे हाँफता काँपता दौड़ता दिखाई देता है और जनसंख्या में वृद्धि के साथ सबसे अधिक विस्तार भी इसी वर्ग का हो रहा है !

आज के युग में सुख, समृद्धि, सम्मान, सम्पन्नता तथा आर्थिक रूप से सुदृढ़ होने की चाह किसे नहीं होती ! इनकी चाह रखना कोई अपराध भी नहीं है ! बस यह महत्वपूर्ण है कि अपनी इस महत्वाकांक्षा की पूर्ति के लिये व्यक्ति कौन सा आधार अपनाता है ! वह स्वयं अपने बलबूते पर इन्हें हासिल करना चाहता है या इसके लिये वह बड़े सभ्य, सुसंस्कृत और प्रतिष्ठित होने का दंभ पाले अपनी मूंछों पर ताव देते हुए योजनाबद्ध तरीके से डंके की चोट पर सरे आम बड़ी सफाई से औरों की मेहनत की गाढ़ कमाई पर हाथ साफ़ करना चाहता है ! लेकिन यह कैसी चाहत है कि उसकी पूर्ति के लिये किसी और का शोषण किया जाये ! किसी और के बैंक बैलेंस पर डाका डाला जाये !

मध्यम वर्ग की विडम्बना यह है कि वह निम्न वर्ग की तरह अपने बच्चों को अशिक्षित भी नहीं छोड़ सकता और ना ही उच्च वर्ग की तरह उनके पास अनाप-शनाप धन है कि बिना कष्ट उठाये और अपनी इच्छाओं, हसरतों और सपनों की बलि चढ़ाए वह अपने लक्ष्य को हासिल कर ले ! समाज में सबके सामने अपनी सम्पन्नता की नुमाइश करने की ललक भी उनके मन में भी विद्यमान रहती है ! धनाढ्य एवं प्रभावशाली लोगों की जीवन शैली का उन लोगों की मानसिकता पर गहरा प्रभाव पड़ता है ! आस पड़ोस के लोगों से भी वे कमतर नहीं रहना चाहते ! अगर पड़ोस के शर्मा जी ने कार खरीदी है तो अचानक ही घर के सभी सदस्यों को अपना पुराना स्कूटर एकदम से खटारा दिखाई देने लगता है ! अगर साथ वाले मकान के श्रीवास्तव जी के बच्चे शहर के सबसे मोटी फीस वाले स्कूल में पढ़ते हैं तो चाहे आमदनी पर्याप्त हो या ना हो अपने बच्चों को भी उसी स्कूल में पढ़ाने की ख्वाहिश मन में घर कर जाती है ! आये दिन घर वालों की फरमाइशें, ताने, उलाहने उनकी दुर्बल इच्छा शक्ति पर नित नये प्रहार कर उसे और कमज़ोर करते हैं और वे येन केन प्रकारेण इन सुख सुविधाओं को जुटाने के लिये कृत संकल्प हो जाते हैं और उचित-अनुचित, नैतिक-अनैतिक, सही-गलत के अंतर को भूलते चले जाते हैं ! ऐसे में बेटे के विवाह के अवसर पर बहू व उसके घर वाले उन्हें सम्पन्नता के सर्वोच्च शिखर पर चढ़ाने के लिये सबसे अधिक सहज सुलभ सीढ़ी की तरह दिखाई देने लगते हैं !

कदाचित बेटे की शादी का अरमान ही उनके मन में इसलिये होता है कि अर्थाभाव के कारण जो कीमती सामान वे अभी तक खरीद नहीं पाये थे वे बेटे के ससुराल वालों से वसूल कर लिये जायें ! इसीलिये दहेज प्रेमियों की सूची में मोटर साइकिल या स्कूटर, फ्रिज, कलर टीवी, लैप टॉप, वाशिंग मशीन, कुकिंग रेंज, डबल बेड, ड्रेसिंग टेबिल, डाइनिंग टेबिल, सोफा सेट, कीमती डिनर सेट और यहाँ तक कि कार इत्यादि सभी कुछ सम्मिलित होता है ! घर के पुराने सामान का बहिष्कार कर उसे नये, आधुनिक व कीमती सामान से एक्सचेंज करने का भला इससे बेहतर और कौन सा विकल्प हो सकता है ! इसके अलावा ढेर सारा कैश, घर परिवार के सभी सदस्यों के लिये उपहार स्वरुप यथा प्रथा कीमती आभूषण और गहने, सूट, शॉल साड़ियाँ इत्यादि तो गिनती में शुमार होने ही नहीं चाहिये क्योंकि ये तो परम्परा का अहम् हिस्सा हैं ! दुःख होता है यह सोच कर कि ऐसे लोग अपने बेटों की शिक्षा दीक्षा पर हुए खर्च को एक निवेश की तरह मानते हैं जिनसे लाभ कमाने का वक्त उनकी शादी के अवसर पर आता है ! जितना उच्च शिक्षित बेटा उतनी ही ऊँची उसकी बोली और दहेज में माँगे गये सामान की उतनी ही बड़ी फेहरिस्त ! शर्म आती है कि यह कैसी रोगग्रस्त मानसिकता हो चली है हमारी !

सवाल यह उठता है कि यह सोच कहाँ तक उचित है ! क्या हमारे मध्यमवर्गीय समाज के पुरुष वर्ग में आत्म सम्मान एवं आत्मविश्वास जैसे सद्गुणों का नितांत अभाव हो गया है ? क्या ये लोग इतने पराश्रयी हो गये हैं कि अपने भावी जीवन के लिये अपनी आवश्यक्ता एवं इच्छा के अनुरूप सुख सुविधा का सामान जुटाने लायक योग्यता एवं क्षमता भी उनमें बाकी नहीं रह गयी है ? या उनकी अंतरात्मा इतना नीचे गिर चुकी है कि विवाह के थाल में पत्नी के साथ परोसे जाने वाले दहेज रूपी षठ रस व्यंजन ही उनके मन को भाने लगे हैं जिन्हें पाने के लिये उन्हें ना तो अपने हाथ पैर हिलाने की ज़रूरत महसूस होती है ना ही इसके लिये वे अपने माथे के स्वेद बिंदुओं को बहाना चाहते हैं ! वे इतने असंवेदनशील हो जाते हैं कि इस प्रक्रिया में लडकी वालों की कमर कितनी टूटती है इससे उन्हें कोई सरोकार ही नहीं होता !

बहू अगर बड़े घर की बेटी है तब तो समझिये लॉटरी ही खुल गयी ! बहू का मायका कामधेनु की तरह हो जाता है ! जब जी चाहा दुह लिया और अपने घर के ‘स्टैण्डर्ड’ में एकाध सितारा और टाँक लिया ! बहू अगर साधारण परिवार की है तो समझ लीजिए कि बेचारी का जीवन नर्क बन गया ! निरीह गाय की तरह वह जब तक दूध देती रहती है उसे दुहा जाता है ! उसके मायके का सारा बैंक बैलेंस भी बिलकुल निचोड़ कर सुखा लिया जाता है ! और जब कुछ भी मिलने की संभावना समाप्त हो जाती है उसे निरर्थक कूड़े कचरे की तरह मिट्टी का तेल छिड़क कर जला दिया जाता है ! जिससे किसी और बदकिस्मत लड़की के जीवन के साथ खेलने के लिये ऐसे कायरों को कानूनी रूप से स्वतन्त्रता मिल सके !

शर्म आती है यह सोच कर कि आधुनिक और विकसित होने का दंभ भरने वाले हमारे समाज में ऐसी पाशविक मनोवृत्तियों से ग्रस्त लोग हर मोहल्ले, हर बस्ती, हर कोलोनी में आज भी मिल जाते हैं ! लेकिन घनघोर अन्धकार में आशा की किरण की तरह आज भी चंद ऐसे नवयुवक दिखाई दे जाते हैं जो ऐसी कुप्रथाओं का विरोध करते हैं और उन्होंने स्वयं दहेजरहित विवाह कर समाज के सामने अपनी संवेदनशीलता, उदारता और दृढ़ इच्छाशक्ति का परिचय दिया है ! बहुत ज़रूरत है कि ऐसे नवयुवक जागृति की मशाल थामें और ऐसी मुहिम चलायें कि संकीर्ण मानसिकता से ग्रस्त अन्य नवयुवक भी अपना दृष्टिकोण बदलें ! उन्हें निज बाहुबल एवं योग्यता पर भरोसा करने के लिये प्रेरित करें ! अपने परिचितों, मित्रों और पास पड़ोसियों में भी यह चेतना फैलानी होगी कि जीवन में जो कुछ वे पाना चाहते हैं उसे अपने बलबूते पर स्वयं अर्जित धन से पाने का लक्ष्य बनायें और यह संकल्प करें कि वे दहेज के नाम पर एक रुपया भी स्वीकार नहीं करेंगे ! युवतियों को भी चाहिये कि वे दहेज लोभी लोगों के साथ सम्बन्ध तय किये जाने का दृढ़ता के साथ विरोध करें तथा अपने अभिभावकों को भी ऐसे लोगों के सामने घुटने टेकने से रोकें ! जब ऐसे दृढ़ संकल्प वाले नौजवान और नवयुवतियाँ समाज की बागडोर थामेंगे तो निश्चित ही देश सही मायनों में सभ्य और सुसंस्कृत होने के मार्ग पर अग्रसर होगा और दहेज के दानव का दम टूटने में देर नहीं लगेगी !

साधना वैद

16 comments :

  1. काश इसे पढकर कोई जागरूक हो... एक भी जागे तो बहुत है

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  2. इस प्रथा का उन्मूलन व्यक्ति निर्माण आधारित व्यवस्था से हो सकता है,जबकि आज कल हम उपभोगतावाद की गुलाम मानसिकता की और बढ़ गए हैं..ये खायी इस परिवेश में बढ़ेगी ही..

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  3. बहुत ज़रूरी विषय पर लिखा है आपने.

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  5. आपके इस सुन्दर प्रविष्टि की चर्चा आज दिनांक 11-11-2011 को शुक्रवारीय चर्चा मंच पर भी होगी। सूचनार्थ

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  6. दहेज प्रथा से सबसे ज्यादा त्रस्त मध्यवर्ग ही है ... लेकिन वो ही अपनी झूठी शान के लिए इसे पालता पोसता है .. ज्वलंत मुद्दे पर लिखे विचार सोचने पर मजबूर करते हैं ...
    विचारणीय प्रस्तुति

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  7. yae bharnti haen ki dahej middle class ki problem haen

    jo jitna ameer haen wo utna jyaadaa daetaa haen aur us sae utnae hi jyada ki apeksha hotee haen

    laxmi mittal ne apni beti ki shaadi paris kae sabsey badae hotel me kii thee aur dhahej me itna diyaa thaa jiska mulya lagayaa hi nahin jaa saktaa haen

    damad unhonae midle class kaa liyaa aur usko apni company me share holder bhi banaa diyaa

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  8. बहुत सटीक और सार्थक लेख..काश इसे पढकर कोई तो जागरूक हो.....

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  9. नमस्कार साधना जी..बहुत ही सुंदर सामाजिक और जागरुक करने वाली रचना....लाजवाब।

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  10. आप की यह प्रविष्ठी अत्यंत मार्मिक तथा संवेदनशील हें.हमारी लालसा व् मुफ्त में हासिल करने की मानसिकता ने सामाजिक विन्यास को विकृत कर दिया हें कि मानवीय सोच क्रूर हो गयी हें.यहाँ सवाल बहू या बेटी का नहीं हें बल्कि किसी अन्य को अपनाने का हें,अपनेपन के भाव का हें.क्योंकि इन्सान किसी अपने की ही तकलीफ बर्दाश्त नहीं कर पाता हें.पता नहीं कब तक..................वो सुबह कभी तो आएगी ..........

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  11. जाने कब मुक्त होंगे लोग इस अभिशप्त प्रथा से....

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  12. सटीक और सार्थक लेख...!!

    कोई तो जागे...

    किसी के घर तो सवेरा हो...!!

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  13. पता नहीं कभी हम इस मानसिकता से बाहर निकलेगें या नहीं.

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  14. बहुत ज्वलंत मुद्दा उठाया है |मध्यम वर्ग ही हर तरफ से पिस रहा है |इसी से कई लडकियां
    सताई जा रही है |कुछ तो इतनी त्रस्त हो जाती हैं की आत्म ह्त्या तक कर लेती हैं |अच्छा लेख |
    बधाई |
    आशा

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  15. दहेज़ की समस्या हमारे समाज में व्याप्त ही नहीं...दिनोदिन इसका स्वरुप बढ़ता ही जा रहा है...
    इसका सिर्फ और सिर्फ एक ही उपाय है..लड़कियों को शिक्षित कर आत्मनिर्भर बनाया जाए और उन्हें अपने पसंद का विवाह करने की छूट भी हो...

    एक बार लडकियाँ आत्मनिर्भर हो जायेंगी..तो इस दहेज़ रुपी राक्षस का मुकाबला कर सकेंगी.

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