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Friday, June 20, 2014

रोज़ देते हैं नया इक इम्तहाँ


इस कदर डूबे रहे खुद में कि तुम
भूल बैठे वक्त की फितरत सनम !
ज़िंदगी हर हाल में बढ़ती रही
बस पिछड़ती जा रही उल्फत सनम !

हर कदम पर फासले बढ़ते रहे
आस होती जा रही कम हर कदम !
रोज़ रोशन इक शमा है बुझ रही
रोज़ तारीकी में भटके दम ब दम !

तुम सितारों से गले मिलते रहे
ज़र्रे-ज़र्रे ने किये हम पर करम !
रोज़ दिल पर सौ कहर बरपा किये
रोज़ दिल में आ ठहर जाते हैं ग़म !

रोज़ बदले ज़िंदगी के फलसफे
रोज़ मुश्किल राह पर चलते हैं हम !
एक तुझको देखने की चाह में
रोज़ तूफानों तले पलते हैं हम !

देख तो लो पास आकर तुम हमें
किस तरह हर रोज़ मिट जाते हैं हम !
रोज़ देते हैं नया इक इम्तहाँ
रोज़ मिट-मिट कर सँवर जाते हैं हम !

साधना वैद



चित्र - गूगल से साभार  

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