अभी उत्तर प्रदेश के हाई कोर्ट का एक अद्भुत आदेश सामने आया कि सभी
मंत्री, जज एवं प्रशासनिक अधिकारी अपने बच्चों को अनिवार्य रूप से सरकारी स्कूलों
में पढ़ने के लिये भेजें ! इस आदेश का स्वागत किया जाए या इसकी आलोचना की जाए कुछ
असमंजस सा बना हुआ है !
एक दृष्टिकोण से देखा जाए तो यह आदेश स्वागत योग्य लगता है क्योंकि जब
समाज के गणमान्य लोगों के बच्चे सरकारी स्कूलों में जाने लगेंगे तो निश्चित रूप से
स्कूलों के स्तर में सुधार भी आएगा और उनका रखरखाव भी ढंग से होने लगेगा ! वरना ज़मीनी
वास्तविकता तो यही है कि सरकारी स्कूलों में अधिकाँश की ना केवल इमारतें ही जर्जर
हैं वहाँ की व्यवस्था भी लचर है ! ६०% स्कूलों में पर्याप्त मात्रा में ब्लैकबोर्ड्स और बेंचेज ही उपलब्ध नहीं हैं ! बच्चों को सफाई का काम स्वयं करना पड़ता है ! अध्यापकों की शिक्षण में रूचि ना के बराबर होती
है एवं शिक्षा का माध्यम हिंदी होने की वजह से कोई यहाँ पढ़ने जाना नहीं चाहता कि
भविष्य में अपने कैरियर की पढाई में वे
पिछड़ जायेंगे और अच्छी अंग्रेज़ी न आने के कारण हर साक्षात्कार में वे रिजेक्ट कर
दिए जायेंगे ! आजकल हर बच्चे का सपना उच्च शिक्षा प्राप्त कर विदेश में बढ़िया
नौकरी पाने का हो गया है जिसके लिये अंग्रेज़ी का अच्छा ज्ञान होना अनिवार्य है !
सरकारी स्कूलों की शिक्षा के स्तर पर कई प्रश्न चिन्ह लगे रहते हैं ! लेकिन जब
माननीय लोगों के बच्चे इन स्कूलों में पढ़ने जायेंगे तो निश्चित रूप से इनकी दयनीय
दशा में सुधार आएगा क्योंकि सुधार लाने की सारी योजनाएं भी इन माननीयों के पास ही होती
हैं और उनके क्रियान्वयन के अधिकार व संसाधन भी इन्हीं के पास होते हैं ! अभी तक
उदासीनता शायद इसीलिये बरती जाती है कि उनके परिवारों के नौनिहाल तो देश विदेश के
सबसे बढ़िया स्कूलों में शिक्षा ग्रहण कर ही लेते हैं समाज के बाकी सर्व साधारण से उन्हें
क्या लेना देना !
लेकिन सिक्के का दूसरा पहलू यह भी है कि यह जीर्णोद्धार क्या दो चार
दिन में आ जाएगा ? परिवर्तन एवं परिमार्जन की अनेकों योजनाओं को सर्व सम्मति से लागू
करने के लिये के लिये कई शिक्षा सत्रों की अवधि का लग जाना अवश्यम्भावी है ! ऐसी
स्थिति में इन बच्चों का जो नुक्सान होगा उसकी भरपाई कैसे की जा सकेगी ! क्या बच्चों
के शिक्षार्जन के इन महत्वपूर्ण वर्षों को इस अव्यावहारिक फैसले की भेंट चढ़ जाने
देना चाहिए ? जिन स्कूलों में शिक्षक ही नियमित रूप से पढ़ाने के लिये नहीं जाते,
महीनों सही गलत मेडिकल रिपोर्ट लगा कर छुट्टियाँ मनाते हैं या प्राइवेट ट्यूशंस
पढ़ा कर अतिरिक्त पैसा कमाते हैं और मुफ्त की तनख्वाह बटोर कर सरकारी खजाने में
सेंध लगाते हैं ऐसे स्कूलों में जाकर किस छात्र का भला होगा ! क्या आदेश देने से
पहले माननीय न्यायाधीश ने सरकारी स्कूलों की व्यवस्थाओं का निरीक्षण कर लिया था ? और
वैसे भी अब क्या कोर्ट यह भी तय करेगी कि
किसके बच्चे किस स्कूल में पढ़ने जाएँ, क्या पहनें, क्या खाएं, कहाँ इलाज कराएं ? क्या
यह हास्यास्पद एवं नितांत अव्यावहारिक आदेश नहीं है ? अपने बच्चों के लिये कोई
निर्णय लेने से पहले माता पिता को क्या अब कोर्ट का मुख निहारना होगा ? भारतीय
लोकतंत्र में इंसान की निजता का क्या अब यही स्वरुप होने जा रहा है ?
इन दिनों हर गली मोहल्ले में अंग्रेज़ी माध्यम में पढ़ाने वाले अनेकों
छोटे बड़े स्कूल कुकुरमुत्ते की तरह दिखाई देते हैं ! जिसके यहाँ भी घर में एक दो
कमरे खाली होते हैं और घर की गृहणी पढ़ी लिखी होती है वहाँ स्कूल खुल जाता है और आस
पड़ोस के लोग खुशी-खुशी अपने बच्चों को वहाँ पढ़ने के लिये भी भेज देते हैं ! इसके दो
प्रमुख कारण हैं ! एक तो यह कि अच्छे स्कूलों में एडमीशन के लिये इतना कॉम्पीटीशन
बढ़ गया है कि आसानी से किसी बच्चे को प्रवेश मिलता ही नहीं दूसरे सरकारी स्कूलों
के घटिया स्तर और शिक्षा का माध्यम हिंदी होने की वजह से कोई उधर का रुख करना नहीं
चाहता ! इसी वजह से इन छोटे-छोटे स्कूलों का धंधा खूब फल फूल रहा है ! सबसे अच्छी
बात यह है कि समाज के हर आय वर्ग के लोगों के बच्चों के लिये इन स्कूलों में
शिक्षा प्राप्त करने की सुविधा उपलब्ध है ! जहाँ फीस अधिक है वहाँ मोटी फीस देकर
भी लोग इसी लालच में बच्चों को भेज देते हैं कि यहाँ पढ़ कर बच्चा अच्छे स्कूल के
कॉम्पीटीशन के लिये तैयार हो जाएगा ! ‘ईच वन टीच वन’ के नारे को यहाँ अमली जामा
पहने हुए देखा जा सकता है ! घर के सभी सदस्य मनोयोग से बच्चों को नर्सरी राइम्स
याद करवाते हुए, रंगों की पहचान करवाते हुए और ए बी सी डी या टेबिल्स रटवाते हुए
देखे जा सकते हैं ! ज़रा सोचिये इन छोटे-छोटे प्राइवेट स्कूलों का अस्तित्व यदि न
होता तो ये नौनिहाल कहाँ पढ़ने जाते ! यहाँ सुविधाएँ शायद कम हों लेकिन शिक्षा के
स्तर में कोई कमी नहीं होती !
आर्थिक लाभ और व्यापार की भावना तो आजकल हर काम में अनिवार्य रूप से
जुड़ी होती है इस बात को नकारा नहीं जा सकता लेकिन इस बात से भी इनकार नहीं किया जा
सकता कि समाज का एक बड़ा वर्ग हमारी नई पीढ़ी को साक्षर बनाने के लिये कृत संकल्प
होकर प्रयास रत है और इस सद्प्रयास और सद्भावना के लिये उसे शाबाशी तो मिलनी ही
चाहिए !
साधना वैद
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