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Saturday, April 1, 2017

बहती धारा





भोर का तारा
छिपा बही जैसे ही
नूर की धारा

बहे धरा पे
पिघल पर्वत से
चाँदी की धारा

उद्गम स्थल 
आलोकित हो जाता 
रवि आभा से 

छिटकी धूप
समूचे पर्वत पे 
सूर्य प्रभा से 

तपता सूर्य
बना दे नदिया को
सोने की धारा

किनारे खड़े
हरे भरे से पेड़
पन्ने सी धारा

नीलम धारा
हुआ प्रतिबिंबित
नीला आकाश

बहती धारा
बहाती कल मल
निर्विकार हो

बहता जाए
नदिया की धारा में
मेरी भी मन

शीतल धारा
तृषित तन मन
जीवनदायी

निर्मल धारा
कण-कण प्लावित
धरा प्रसन्न

जीवन धारा
बहती प्रति पल 
धीमी गति से

प्रचंड धारा
समस्त जन धन
बहा ले गयी

कुपित धारा
मानव का अज्ञान
आया सैलाब

न छेड़ो तुम
प्रकृति का नियम
पछताओगे


साधना वैद

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