तुम्हें
शायद नहीं पता
तुम्हारी
आँखों का दुराव
तुम्हारी
बातों का अलगाव
तुम्हारे
व्यवहार का भटकाव
तुम लाख
मुझसे छिपाने की
कोशिश
कर लो
मेरी
समझ में आ ही जाता है !
तुम्हारा
बेवजह मुझसे नज़रें चुराना,
मुँह
फेर व्यस्तता का दिखावा कर
हूँ हाँ
वाले रूखे फीके जवाब देना,
चहरे पर
अनायास उग आये
कँटीले तारों
के जाल में उलझे रहना
तुम्हें
क्या लगता है ये सब
मेरी
नज़र से छिपे रहते हैं ?
सच मानो
ये मेरे दिल पर भी
उतनी ही
तीव्रता से आघात करते हैं
जितनी
गहराई से शायद
तुम्हें
चोट पहुँचाते हैं !
तुम्हारी
आवाज़ के हर उतार चढ़ाव से
उसमें मुखर
होती हर ऊब,
खीझ और उकताहट
से
उसकी हर
लरज़, हर कम्पन से
खूब
परिचित हूँ मैं भी !
उस वक्त
भी जब उसमें मेरे लिए
स्वागत और
सम्मान होता है
चिंता और
व्यग्रता होती है
प्रेम और
निष्ठा निहित होती है
और तब
भी जब उसमें मेरे लिए
अलगाव और
अनादर होता है
व्यंग और
कटाक्ष होता है
उपेक्षा
और उपहास होता है !
अक्सर यह
विचार मन में आता है
जो देख
नहीं सकते
जो सुन
नहीं सकते
वो
कितने भाग्यशाली हैं
जीवन की
कितनी बड़ी कुरूपता के
अभिशाप
से वे बचे हुए हैं !
जीवन के
कितने पावन, कितने निर्मल,
कितने
शुद्ध सौन्दर्य का
रसपान वे
कर पाते हैं !
न कुछ
बुरा देखते हैं
न ही
सुनते हैं
शायद
इसीलिये उनके मन में
अजस्त्र
प्रेम की एक निर्मल धारा
सदैव
प्रवाहित होती रहती है !
आज इसी
बात का अफ़सोस है कि
हम देख
सुन क्यों पाते हैं !
जो देख
सुन न पाते तो
शायद हम
भी उतने ही सुखी होते !
साधना
वैद
No comments :
Post a Comment