नमन तुम्हें हे
भुवन भास्कर !
स्वर्ण किरण के
तारों से नित बुनी सुनहरी धूप की चादर
नमन तुम्हें हे
भुवन भास्कर !
शेष हुआ
साम्राज्य तिमिर का संसृति में छाया उजियारा
भोर हुई चहके
पंछी गण मुखरित हुआ तपोवन सारा
लुप्त हुए
चन्दा तारे सब सुन तेरे अश्वों की आहट
जाल समेट
रुपहला अपना लौट चला नि:शब्द सुधाकर !
नमन तुम्हें हे
भुवन भास्कर !
स्वर्णरेख चमकी
प्राची में दूर क्षितिज छाई अरुणाई
वन उपवन में
फूल फूल पर मुग्ध मगन आई तरुणाई
पिघल पिघल
पर्वत शिखरों से बहने लगी सुनहली धारा
हो कृतज्ञ
करबद्ध प्रकृति भी करती है सत्कार दिवाकर !
नमन तुम्हें हे
भुवन भास्कर !
जगती के कोने
कोने में भर देते आलोक सुनहरा
पुलक उठी वसुधा
पाते ही परस तुम्हारा प्रीति से भरा
झूम उठीं कंचन
सी फसलें खेतों में छाई हरियाली
आलिंगन कर कनक
किरण का करता अभिवादन रत्नाकर !
नमन तुम्हें हे
भुवन भास्कर !
चित्रकार न कोई
तुमसा इस धरिणी पर उदित हुआ है
निश्चल निष्प्राणों को गति दी निज किरणों से जिसे छुआ है
सँवर उठा वसुधा का अंग-अंग सुरभित सुमनों की शोभा से
इन्द्रधनुष की न्यारी सुषमा से पुलकित हर प्राण प्रभाकर !
नमन तुम्हें हे
भुवन भास्कर !
स्वर्ण किरण के
तारों से नित बुनी सुनहरी धूप की चादर !
नमन तुम्हें हे
भुवन भास्कर !
साधना वैद
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