तब भी कहीं
ठहरी थी ज़िंदगी
कहीं
रुक के मैंने भी
छाँह
तलाशी थी !
तब हवाओं
में खुशबू थी
गुलों
में ताज़गी थी
मन में
आशा थी
नैनों
में सुनहरे सपने थे
कंठ में
मुखरित होने को बेचैन
न जाने
कितने मधुर
गाये अनगाये
गीत ठहरे थे !
जाने
कैसा विश्वास था
मैं
पुकारूंगी तुम्हें और
तुम
किसी देवपुरुष की भाँति
अनायास
ही मेरे सामने
तुरंत
ही प्रकट हो जाओगे
और आनन्
फानन में
मेरी हर
इच्छा पूरी कर दोगे !
ठहरी तो
अभी भी है ज़िंदगी
जीवन की
शाम भी ढल चुकी है !
और ज़िंदगी
का पहिया भी
अब जाम
हो चुका है !
ना कहीं
हवाओं में खुशबू है
ना
मुरझाये फूलों में कोई
ताज़गी ही
बची है !
मन आस
निरास की
आँख
मिचौली से अब जैसे
बिलकुल विरक्त
हो चला है !
नैनों
के सपने
साकार
होने से पहले ही
टूट
चुके हैं !
कंठ में
अवरुद्ध गीत वहीं
घुट कर
खामोश हो गए हैं !
और
विश्वास ?
तुमसे
मिलने के बाद
इस शब्द
की परिभाषा, मायने,
सन्दर्भ,
प्रसंग सब बदल चुके हैं !
अब बस जीवन
में जो कुछ
शेष रह
गया है
वह एक
प्रतीक्षा ही है
चिरंतन लक्ष्य
तक
पहुँचने की प्रतीक्षा
आतुर प्रतीक्षा
कब...कैसे...और...किस दिन...!
चित्र -- गूगल से साभार
साधना
वैद
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