मेरा कहानी संग्रह, ‘तीन अध्याय’ इसी माह में प्रकाशित हुआ है और आपको बताते हुए मुझे अत्यंत हर्ष हो रहा है कि इसका लोकार्पण विश्व मैत्री मंच के अंतर्राष्ट्रीय सम्मलेन में इसी २५ अगस्त को ताशकंद में अति विशिष्ट गणमान्य सुधी जनों के द्वारा किया गया है ! मुझे अत्यंत प्रसन्नता हो रही है कि प्रकाशित होने के साथ ही इस पुस्तक की कहानियों ने पाठकों के हृदय पर दस्तक देना आरम्भ कर दिया है ! मैं आज ही ताशकंद की यात्रा से लौटी हूँ और यहाँ आते ही अपनी पोस्ट पर कमेन्ट बॉक्स में प्रतिक्रिया स्वरुप तीन भागों में अपनी अनन्य सखी फूलाँ दत्ता जी की यह विस्तृत एवं अत्यंत संवेदनशील टिप्पणी पढ़ने को मिली ! उनके प्रति मन अगाध प्रेम से उमड़ आया है ! हार्दिक धन्यवाद एवं आभार फूलाँ जी ! टिप्पणी बॉक्स में शायद सब ना पढ़ पायें इसलिए इसे अपनी वाल पर शेयर कर रही हूँ ! आपकी अनुमति तो है ना ?
आदरणीय भाभी जी यह बताते हुये मुझे बहुत हर्ष हो रहा है कि " तीन अध्याय" मैने पढ़ ली। सबसे पहले तो आपको बहुत बधाई । सभी कहानियाँ बहुत अच्छी हैं । सरल सहज भाषा और लिखने का मनोरंजक तरीका ! पढ़ने वाला उन्ही में खो जाता है । जीवन के कई रंग देखने को मिले । घरेलू कामकाज करने वाली स्त्रियों की त्रासदी, मजबूरी गरीबी के चलते मन को मार कर रह जाने वाले बच्चों का दुख ( बाप का साया , ढाक के तीन पात , अपनी अपनी औकात, रानी, बोझ, नई फ्रॉक )
नारी की पीड़ा भी है ( राम ने कहा था, तीन अध्याय, हाय तुम्हारी यही कहानी ) चित भी मेरी पट भी मेरी वाले पति ( तुरप के पत्ते )
हास्य भी है, ( साहब सब्जी लाये, शरमाइन ने कुत्ता पाला, साहब ने की बागबानी ) हँसी आये बिना नही रहती और मन हल्का फुल्का हो जाता है !
वैसे तो सभी कहानियाँ अपने आप मे विशेष हैं पर कुछ ने मन को गहरे तक छुआ, ( राम ने कहा था, सुनती हो शुभ्रा, बताओ न मम्मा, तीन अध्याय ) राम ने कहा था और तीन अध्याय के बारे में आगे लिख रही हूं।
नारी की पीड़ा भी है ( राम ने कहा था, तीन अध्याय, हाय तुम्हारी यही कहानी ) चित भी मेरी पट भी मेरी वाले पति ( तुरप के पत्ते )
हास्य भी है, ( साहब सब्जी लाये, शरमाइन ने कुत्ता पाला, साहब ने की बागबानी ) हँसी आये बिना नही रहती और मन हल्का फुल्का हो जाता है !
वैसे तो सभी कहानियाँ अपने आप मे विशेष हैं पर कुछ ने मन को गहरे तक छुआ, ( राम ने कहा था, सुनती हो शुभ्रा, बताओ न मम्मा, तीन अध्याय ) राम ने कहा था और तीन अध्याय के बारे में आगे लिख रही हूं।
राम ने कहा था -
आपने सही सवाल पूछे सीता जी से ! शायद उन्ही के कारण ही आज भी नारी को कई परीक्षाओं से गुजरना पड़ता है और पुरुष ( चाहे वह खुद रावण हो) पत्नी में सीता को ढूँढता है।
मैं यहाँ आपके साथ अपने कुछ विचार साझा करना चाहती हूँ । सीता जी तो पतिपरायणा पत्नी थीं, पति का हर आदेश उनके लिये ब्रह्मवाक्य था पर उनके मन की पीड़ा, मन में धधकते हुए दावानल की थाह कौन पा सकता था ! अग्नि परीक्षा के बाद भी वनवास मिला । दो पुत्रों की माँ बन जाने के जब एक लंबे अंतराल के बाद उनका अपने पति से सामना हुआ तब भी पति को उहापोह की स्थिति मे पाकर वह और क्या करती ! धरती माँ की गोद मे समा जाने के सिवाय और क्या विकल्प था उनके पास !
पर कुछ प्रश्न तो श्रीराम से भी पूछे जाने चाहिये --
प्रभु आपने ऐसा क्यों किया ?
आप तो मर्यादा पुरुषोत्तम कहलाते हो फिर अपनी पत्नी की मर्यादा की रक्षा क्यो नही की ?
माना कि आप प्रजा को पितृवत प्रेम करते थे, पर सब कुछ प्रजा ही थी ? पत्नी के प्रति आपका कोई दायित्व नही था ?
एक मूर्ख और मूढ़ धोबी ओर वैसी ही मानसिकता वाले प्रजाजनों के लिये आपने अपनी निर्दोष, गर्भवती पत्नी को वन में बेसहारा छोड़ दिया ! आखिर क्यों ?
राम यह प्रश्न तो आपसे पूछे जाते रहेंगे, बेशक आप अपनी पत्नी को हृदय से प्रेम करते थे, उनके वन जाने के बाद उनके वियोग में धरती पर सोते रहे, एक पत्नीव्रती रहे, यहाँ तक कि अश्वमेध यज्ञ जो पत्नी के बिना नहीं होता वहाँ भी आपने सीता की प्रतिमा बनवा कर पार्श्व में बिठाया, दूसरा विवाह नही किया, पर भगवान होकर भी आप यह कैसे भूल गये कि प्रेम से अधिक पत्नी को अपना मान सम्मान चाहिये !!
आपने सही सवाल पूछे सीता जी से ! शायद उन्ही के कारण ही आज भी नारी को कई परीक्षाओं से गुजरना पड़ता है और पुरुष ( चाहे वह खुद रावण हो) पत्नी में सीता को ढूँढता है।
मैं यहाँ आपके साथ अपने कुछ विचार साझा करना चाहती हूँ । सीता जी तो पतिपरायणा पत्नी थीं, पति का हर आदेश उनके लिये ब्रह्मवाक्य था पर उनके मन की पीड़ा, मन में धधकते हुए दावानल की थाह कौन पा सकता था ! अग्नि परीक्षा के बाद भी वनवास मिला । दो पुत्रों की माँ बन जाने के जब एक लंबे अंतराल के बाद उनका अपने पति से सामना हुआ तब भी पति को उहापोह की स्थिति मे पाकर वह और क्या करती ! धरती माँ की गोद मे समा जाने के सिवाय और क्या विकल्प था उनके पास !
पर कुछ प्रश्न तो श्रीराम से भी पूछे जाने चाहिये --
प्रभु आपने ऐसा क्यों किया ?
आप तो मर्यादा पुरुषोत्तम कहलाते हो फिर अपनी पत्नी की मर्यादा की रक्षा क्यो नही की ?
माना कि आप प्रजा को पितृवत प्रेम करते थे, पर सब कुछ प्रजा ही थी ? पत्नी के प्रति आपका कोई दायित्व नही था ?
एक मूर्ख और मूढ़ धोबी ओर वैसी ही मानसिकता वाले प्रजाजनों के लिये आपने अपनी निर्दोष, गर्भवती पत्नी को वन में बेसहारा छोड़ दिया ! आखिर क्यों ?
राम यह प्रश्न तो आपसे पूछे जाते रहेंगे, बेशक आप अपनी पत्नी को हृदय से प्रेम करते थे, उनके वन जाने के बाद उनके वियोग में धरती पर सोते रहे, एक पत्नीव्रती रहे, यहाँ तक कि अश्वमेध यज्ञ जो पत्नी के बिना नहीं होता वहाँ भी आपने सीता की प्रतिमा बनवा कर पार्श्व में बिठाया, दूसरा विवाह नही किया, पर भगवान होकर भी आप यह कैसे भूल गये कि प्रेम से अधिक पत्नी को अपना मान सम्मान चाहिये !!
अब तीन अध्याय के बारे मे आगे लिख रही हूं
तीन अध्याय
भाभी जी मैंने पहले भी कई बार महसूस किया है और आज भी कहूँगी कि आपकी रचना पढ़ते हुए ऐसा लगता है जैसे यह कहीं न कहीं हम से जुड़ी है । ‘तीन अध्याय’ पढ़ने के बाद तो कई लोगों को लगेगा कि यह उनकी ही आपबीती है । यह आपके लेखन का कमाल है कि पढ़ने वाले को लगता है कि उसी के लिये लिखी गई है।
पहले अध्याय ने विभोर किया । दूसरे ने मन को गहरे तक छुआ । आप कितनी आसानी से मानव मन में झाँक लेती हैं । सच ही है, एक भावुक, सम्वेदनशील लड़की मन मे ढेरों सपने सँजोये एक नये जीवन मे प्रवेश करती है, पर धीरे धीरे कब उसके सपने हाथों से रेत की तरह फिसल जाते हैं उसे पता ही नहीं चलता । गृहस्थी की जिम्मेदारियाँ, दूसरों की सुख सुविधा का ध्यान, अपनी इच्छाओं को दबा कर दूसरों के लिये जीना, यह सब करते-करते पता भी नही चलता कि इतने सारे वर्ष कहाँ चले गये और अपने हाथ खाली ही रह गए।
ओफ़ !! तीसरा अध्याय तो मन को अंदर तक कचोट गया, आँखे ही नही भीगीं मन भी भीग गया।
इतने वर्षों के संघर्ष का क्या यही इनाम है !!
थका बूढ़ा बीमार शरीर, हर पल अपने बच्चों की आवाज़ सुनने को तरसते कान, द्वार की तरफ देखती हुई मायूस आँखें और कभी न खत्म होने वाला इंतज़ार !!!
भाभी जी अंत मे आपको एक बार फिर से ढेर सारी बधाई देते हुए ईश्वर से प्रार्थना करती हूँ कि वह आपके लेखन को सशक्त बनाये रखें और आप अपने पाठकों के लिये इसी तरह लिखती रहें।
दिल से आभार आपका फूलाँ जी ! आपकी इतनी सुन्दर प्रतिक्रिया ने मेरा मन भिगो दिया !
तीन अध्याय
भाभी जी मैंने पहले भी कई बार महसूस किया है और आज भी कहूँगी कि आपकी रचना पढ़ते हुए ऐसा लगता है जैसे यह कहीं न कहीं हम से जुड़ी है । ‘तीन अध्याय’ पढ़ने के बाद तो कई लोगों को लगेगा कि यह उनकी ही आपबीती है । यह आपके लेखन का कमाल है कि पढ़ने वाले को लगता है कि उसी के लिये लिखी गई है।
पहले अध्याय ने विभोर किया । दूसरे ने मन को गहरे तक छुआ । आप कितनी आसानी से मानव मन में झाँक लेती हैं । सच ही है, एक भावुक, सम्वेदनशील लड़की मन मे ढेरों सपने सँजोये एक नये जीवन मे प्रवेश करती है, पर धीरे धीरे कब उसके सपने हाथों से रेत की तरह फिसल जाते हैं उसे पता ही नहीं चलता । गृहस्थी की जिम्मेदारियाँ, दूसरों की सुख सुविधा का ध्यान, अपनी इच्छाओं को दबा कर दूसरों के लिये जीना, यह सब करते-करते पता भी नही चलता कि इतने सारे वर्ष कहाँ चले गये और अपने हाथ खाली ही रह गए।
ओफ़ !! तीसरा अध्याय तो मन को अंदर तक कचोट गया, आँखे ही नही भीगीं मन भी भीग गया।
इतने वर्षों के संघर्ष का क्या यही इनाम है !!
थका बूढ़ा बीमार शरीर, हर पल अपने बच्चों की आवाज़ सुनने को तरसते कान, द्वार की तरफ देखती हुई मायूस आँखें और कभी न खत्म होने वाला इंतज़ार !!!
भाभी जी अंत मे आपको एक बार फिर से ढेर सारी बधाई देते हुए ईश्वर से प्रार्थना करती हूँ कि वह आपके लेखन को सशक्त बनाये रखें और आप अपने पाठकों के लिये इसी तरह लिखती रहें।
दिल से आभार आपका फूलाँ जी ! आपकी इतनी सुन्दर प्रतिक्रिया ने मेरा मन भिगो दिया !
साधना वैद
जी नमस्ते,
ReplyDeleteआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल रविवार (01-09-2019) को " जी डी पी और पी पी पी में कितने पी बस गिने " (चर्चा अंक- 3445) पर भी होगी।
चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट अक्सर नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
आप भी सादर आमंत्रित है
….
अनीता सैनी
आपका हृदय से बहुत बहुत धन्यवाद एवं आभार अनीता जी ! सप्रेम वन्दे !
ReplyDeleteबहुत सुन्दर लेख फूलन जी का |
ReplyDeleteधन्यवाद जीजी ! फूलाँ जी मेरी रचनाओं पर हमेशा ही बहुत सारगर्भित प्रतिक्रिया देती हैं ! इस समीक्षा तो कोई जवाब ही नहीं !
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