हरियाली तीज की आप सभीको हार्दिक शुभकामनाएं
मुझे आज भी याद है हम छोटे छोटे से थे जब बाबा ने घर के बगीचे में फूलों की
क्यारियों के पास मेंहदी का एक छोटा सा बूटा रोप दिया था ! उसके नन्हे नन्हे से
चमकीले हरे पत्ते हम सबको खूब लुभाते ! अक्सर उन्हें तोड़ कर हम उँगलियों से मसल कर
देखते की उँगलियाँ लाल हुईं या नहीं ! खूब खाद पानी हवा धूप पाकर वह बूटा बड़ी
जल्दी पनप गया और एक खूबसूरत से झुरमुट के आकार में लहलहा उठा ! मेंहदी की वह झाड़ी
हम सबके आकर्षण का केंद्र थी ! जब भी कोई तीज त्यौहार आता या मोहल्ले में किसीके
भी घर में कोई उत्सव या मांगलिक कार्य होता मेंहदी की आपूर्ति हमारे ही घर से होती
क्योंकि सबकी यही धारणा थी कि यह बड़ी रचनी मेंहदी है और चाहे कितनी भी जल्दी धो दी
जाए इसका रंग खूब सुर्ख लाल हो जाता है ! सावन के महीने में हम बच्चे मेंहदी की झाड़ी
के आस पास ही मंडराते रहते और सुर में सुर मिला कर गाते ---
मेरी मेंहदी के लम्बे चौड़े पत्ता पपैया बोले
पहले मेंहदी इसी तरह ताज़े ताज़े पत्तों को पीस कर ही लगाई जाती थी ! हमें
याद है सावन के महीने में तीजों से पहले घर में सभी लड़कियाँ और विवाहित महिलायें
अनिवार्य रूप से मेंहदी लगाती थीं ! बड़ी सी डलिया में मेंहदी के पत्ते तोड़ कर जमा
किये जाते थे और अम्माँ दुलारी काकी को ख़ास ताकीद करती थीं, “दुलारी, खूब महीन
पीसियो मेंहदी ! लपड़ झपड़ करके बेगार ना टालियो ! तू भी ले जइयो अपने घर छोरियों के
काजे ! लेकिन खूब मन लगा कर पीसियो नहीं तो अच्छी ना रचेगी मेंहदी !”
और दुलारी काकी सिल बट्टे के पास जम के अपना आसन लगा लेतीं ! बिना पानी
डाले खूब मेहनत से रच पच कर वो मेंहदी पीसतीं ! और हम देखते कि उनके हाथ तो पीसते
पीसते ही लाल सुर्ख हो जाया करते थे !
अम्माँ सबसे पहले हम बहनों को मेंहदी लगातीं ! घर की पिसी मेंहदी से आजकल जैसे महीन डिजाइन तो बनते नहीं थे ! अम्माँ या तो हमारे हाथों में मेंहदी रख मुट्ठी बाँध देतीं या हथेली पर बीच में बड़ा सा चन्दा बना कर आस पास छोटी छोटी बिंदियाँ धर देतीं ! मुट्ठी बनातीं तो हथेली को थोड़ा मोड़ कर बीच में मेंहदी रख देतीं और ताकीद करतीं कि मुट्ठी ढीली ना करना वरना बीच में मछली नहीं बनेगी ! सुन्दर मछली के लालच में हम खूब कस के मुट्ठी बाँधे रहते ! अम्माँ हमारे हाथों को अपनी पुरानी धोती के टुकड़ों से कस के बाँध दिया करती थीं कि मुठ्ठी ढीली ना हो जाए ! हाथ धोने के बाद हथेली में रेखाओं वाली जो जगह सफ़ेद निकलती अम्माँ उसे ही मछली कहती थीं ! उस मेंहदी का रंग आज कल की मेंहदी की तरह गहरा मैरून या काला तो कभी होता ही नहीं था ! जिसके बहुत रचती थी उसकी कुछ अधिक लाल हो जाती थी वरना तो पीली या नारंगी मेंहदी ही हुआ करती थी ! रात को अम्माँ हम लोगों के पैरों में भी मेंहदी लगातीं ! बान की चारपाई पर पीठ के नीचे दरी या चादर बिछा दी जाती और उस पर लिटा कर अम्माँ तलवों में मेंहदी की खूब मोटी पर्त लगातीं ! पैर खाट से बाहर रखने पड़ते कि दरी चादर खराब ना हो जाए ! एहतियात के लिए अम्माँ अपनी पुरानी धोती से हम लोगों के पैर चारपाई से बाँध देतीं कि कहीं सोते समय करवट ना ले लें ! सुबह होने तक आधी से ज्यादह मेंहदी टपक टपक कर नीचे झड जाती लेकिन पैर फिर भी खूब लाल हो जाते ! हाथ पैरों में सर्दी की ठिठुरन से झुर्रियाँ सी पड़ जातीं ! इन सारे झमेलों में रस भी खूब आता था और अम्माँ से लड़ाई भी खूब होती थी !
जब मेंहदी हाथों में लगी होती तो अम्माँ बड़े प्यार से अपने हाथों से हमें
खाना खिलातीं ! पैरों में लगी होती तो सारा घर हम लोगों के काम के लिए तैयार रहता
मजाल नहीं थी किसीकी जो कोई मना कर दे किसी भी काम के लिए ! उन दिनों हम लोगों का
रुतबा रानी महारानियों जैसा हो जाया करता था !
सुबह उठ कर मेंहदी ऐसे ही पानी से नहीं धोई जाती थी ! मेंहदी सुबह तक भी
वैसी ही गीली गीली रहती थी कि उसे कोई चाहे तो फिर से लगा ले ! सारी मेंहदी हटा कर
हथेलियों और तलवों पर पहले सरसों का या नारियल का तेल लगाया जाता था ! अम्माँ जब हम
लोगों की लाल लाल हथेलियाँ देखतीं तो खूब प्यार से उन्हें चूमतीं ! सावन का महीना
हम बहनों के लिए अति विशिष्ट हुआ करता था ! मेंहदी चूड़ी बिंदी रिबन चुटीले साज
श्रृंगार के सामान तो खूब मिलते ही अम्माँ हम लोगों के लिए खूब पकवान भी बनातीं !
और अपने हाथों से हम लोगों की चुन्नियाँ लहरिये के मनभावन रंगों में रंगतीं ! फिर
उन पर रुपहला सुनहरा गोटा या किरण लगातीं ! बाबा हम लोगों के लिए एक झूला घर के
बरामदे में छत की कड़ी से बँधवा देते और एक झूला बगीचे में नीम के पेड़ से बँधवा
देते ! सारे दिन सखियों सहेलियों का जमघट लगा रहता और सारा दिन खूब मस्ती होती ! उन
दिनों की यादें आज भी मन को हरा कर जाती हैं !
जैसे जैसे हम लोग बड़े होते गए मेंहदी का स्वरुप बदलता गया ! स्कूल कॉलेज
में सहेलियों के हाथों में सजे मेंहदी के कलात्मक बूटे मन को रिझाने लगे ! फिर
बाज़ार से मेंहदी पाउडर मँँगवा कर उसे घोल कर दियासलाई की सींकों को पैना कर उससे
सुन्दर फूल पत्ती बेल बूटे के डिजाइन बनाने की परम्परा शुरू हुई ! इसका घोल बनाने
में बड़ी मशक्कत करनी पड़ती ! मेंहदी हथेलियों पर खूब रचे इसके लिए उसमें कभी कॉफ़ी
पाउडर तो कभी कत्थे का पाउडर मिलाया जाता तो कभी चाय की पत्ती उबाल कर उसके पानी
से मेंहदी को घोला जाता ! मेंहदी लगाते समय तार ठीक से बने इसके लिए उसमें
भिन्डी का जूस या उबली अरबी का पानी भी मिलाते ! बड़ी मेहनत के बाद मेंहदी का घोल
बनता ! लेकिन यह हथेलियों पर बड़ी जल्दी सूख जाती ! आशंका होती कि इतनी जल्दी तो यह
रचेगी ही नहीं तो इसे टिकाये रखने के लिए सूखी हुई मेंहदी पर रुई के फाहों से चीनी
घुला पानी लगा कर उसे तर करते रहते ! कभी लाल सुर्ख तो कभी नारंगी पीली सी यह
मेंहदी रचती ! जब खराब रचती तो मन मसोस कर रह जाते और अपने घर के उदास उपेक्षित
मेंहदी के पेड़ को देखा करते जिसकी पूछ दिन ब दिन कम होती जा रही थी !
कालान्तर में घर में मेंहदी घोलने का यह रिवाज़ भी ख़त्म हो गया ! बाज़ार में
मेंहदी के बने बनाए कोन मिलने लगे ! सौ प्रतिशत गारंटी के साथ कि जो भी लगाएगा
मेंहदी रचेगी ही रचेगी ! अब जब भी ज़रुरत होती है बाज़ार से मेंहदी के बने बनाए कोन
आ जाते हैं लेकिन उसमें इतने केमिकल्स मिले होते हैं कि ज़रा देर में ही मेंहदी लाल
काली हो जाती है ! और उतनी ही जल्दी छूटने भी लगती है ! पहले की मेंहदी कई दिनों तक
हथेलियों पर टिकी रहती थी ! धीरे धीरे हल्की होते होते कई दिनों में छूटती थी ! लेकिन
आजकल दो तीन दिन के बाद ही उधड़ी सी हो जाती है ! साल में बारहों महीने ये कोन
मिलते हैं ! जब जी चाहे ले आइये ! अब तो बाज़ारों में, पार्लर्स में हर जगह
प्रोफेशनल मेंहदी लगाने वाले भी बैठे रहते हैं ! पैसे दीजिये और जैसी चाहें वैसी
मंहदी लगवा लीजिये ! अधिक पैसे देकर घर पर भी बुलवा सकते हैं !
हमारे घर का मेंहदी का वह पेड़ अब सूख चला है ! अब किसीको उसके पत्तों की
ज़रुरत नहीं रही ! तीज त्यौहार हों, मांगलिक उत्सव हों या घर में बहू बेटियों का
मेल मिलाप हो उस मेंहदी के पेड़ की ओर अब कोई नहीं देखता ! फ़ौरन आदेश दे दिया जाता
है, “सुनते हो जी शाम को लौटते वक्त छाया बैंगिल स्टोर से मेंहदी के तीन चार कोन लेते
आइयेगा ! हम सबको मेंहदी लगानी है !” अब किसीको झंझट पसंद नहीं ! सबको सुविधा पसंद
है ! इस मेंहदी से डिजाइन ज़रूर सुन्दर और खूब महीन बन जाते हैं और यह रच भी खूब
जाती है लेकिन प्यार, ममता और वात्सल्य के जो रंग उस मेंहदी में घुले होते थे वो
बाज़ार के इन रेडीमेड कोन्स में कहाँ !
साधना वैद
जी नमस्ते,
ReplyDeleteआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शनिवार (02-08-2019) को "हरेला का त्यौहार" (चर्चा अंक- 3416) पर भी होगी।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट अक्सर नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
आप भी सादर आमंत्रित है
….
अनीता सैनी
आपका हृदय से बहुत बहुत धन्यवाद एवं आभार अनीता जी ! सप्रेम वन्दे !
ReplyDeleteबहुत सारी यादें बीते कल की यादें ताजा कर दीं |सुन्दर लेख |
ReplyDeleteहार्दिक धन्यवाद जीजी ! आभार आपका !
ReplyDeleteजी नमस्ते,
ReplyDeleteआपकी लिखी रचना हमारे सोमवारीय विशेषांक
५ अगस्त २०१९ के लिए साझा की गयी है
पांच लिंकों का आनंद पर...
आप भी सादर आमंत्रित हैं...धन्यवाद।
आपका हृदय से बहुत बहुत धन्यवाद एवं आभार श्वेता जी ! सप्रेम वन्दे !
ReplyDeleteपूरा बचपन ही याद दिला दिया आपने। बचपन में हमारे घर के बाहर की बाउंड्री मेहंदी की झाडियों से ही बनती थी। ज्यादातर घरों के आगे की खाली जगह को पहले ऐसे ही घेरा जाता था। मेहंदी की ये झाड़ या कहें छोटा पेड़ हर घर के बाहर बाउंड्री वाल के तौर पर आम दिख जाती थी। उसी में से पत्ते तोड़कर अक्सर लड़कियां मेहंदी लगाती थी। तरीका वही, सिलबट्टे वाला। सिलबट्टा भी वही,जिस पर अक्सर चटनी पिसी जाती थी पुदीने की, धनिये की। जो स्वास्थ्य के लिए आवश्यक भी होती थी। येभी अच्छी तरह से याद है कि ये मेहंदी काफी दिनों तक दिखती थी। फिर इन्हीं मेहंदी रचे हाथों में के तरह-तरह के बेलबुटों में कहीं दिल भी अटकने लगता था। धीरे- धीरे ये सब विदा होते गए, चटनी विदा हुई, मेहंदी विदा हुई, किडनी खराब होने लगी, मेहंदी के रंग चंद दिन में छुटने लगे। रिश्ते टूटने लगे।
ReplyDeleteतब कहते थे कि जिसके हाथ में मेहंदी का रंग जितना गहरा होगा, उतना उसका पति उतना ही ज्यादा उसे प्यार करेगा। पर अब तो बाजार से आधुनिक मेहंदी आने लगी है, जिसका रंग, जैसा कि आपने बताया, तीन-चार दिन में उतर जाता है। आजकल रिश्ते भी कुछ ऐसे नहीं हो गए हैं,आधुनिक से, चंद दिन में खत्म हो जाने वाले?
पोस्ट ही लिख रहा हूं अपने ब्लाग पर
ReplyDeleteआपके बचपन की ये यादे अनमोल है. पढ़ कर सकूं मिला.
ReplyDeleteपधारें कायाकल्प
पुराने दिनों की याद दिला दी साधना जी। बेहतरीन प्रस्तुति
ReplyDeleteहार्दिक धन्यवाद रोहित जी ! आपको पोस्ट अच्छी लगी और आपने इतनी खूबसूरत संवेदनशील प्रतिकिया दी आपका हृदय से बहुत बहुत आभार ! लेखक का लेखन धर्म सार्थक हो जाता अगर उसका लिखा हुआ किसीके हृदय को छू ले ! इसी प्रकार अनुकम्पा बनाए रखें ! एक बार फिर तहे दिल से शुक्रिया !
ReplyDeleteहार्दिक धन्यवाद अनुराधा जी ! आभार आपका !
ReplyDeleteआपका हृदय से बहुत बहुत धन्यवाद एवं आभार अनीता जी ! सप्रेम वन्दे !
ReplyDeleteबचपन की सारी यांदें ताज़ा कर दी आपने
ReplyDeleteबहुत ही सुंदर ,लाज़बाब सृजन ,सादर नमन