हम तो बाशिंदे थे तेरे मोहल्ले के
तूने मोहल्ला बदल लिया
बता क्या करें हम !
हम बाशिंदे बने रहे तेरे शहर के
तूने शहर ही छोड़ दिया
बता क्या करें हम !
हमने तेरे दिल में रहना चाहा
तूने दिल ही दे दिया किसी और को
बता क्या करें हम !
अब बस इतनी सी इल्तिज़ा है
बस जाने दे हमें इन आँखों में
क़ुबूल है हमें तेरी आँखों में रहना भी
और कोई ठिकाना भी तो नहीं
बता क्या करें हम !
बना सकते थे बाशिंदा तुझे
हम अपनी ही आँखों का
लेकिन फिर कैसे लगाते पाबंदी
तेरी बेवफाई की फितरत पर !
रोना तो है हर हाल में हमें
डरते हैं आँसुओं का सैलाब
बहा न ले जाये तुझे
इन नैनों की दहलीज से बाहर !
हाँ ; तेरी आँखें कभी नम न होंगी
तो हमारा आवास भी न बदलेगा
इसका पूरा भरोसा है हमें !
चित्र - गूगल से साभार
साधना वैद
हकीकत बयान करती रचना
ReplyDeleteहार्दिक धन्यवाद जीजी ! आभार आपका !
Deleteबहुत सुन्दर मार्मिक रचना।
ReplyDeleteहार्दिक धन्यवाद शास्त्री जी ! बहुत बहुत आभार !
Deleteहार्दिक धन्यवाद केडिया जी ! आभार आपका !
ReplyDeleteवाह
ReplyDeleteबहुत मुश्किल है संवेदनशील लोगों के लिये कि जरा सी जगह चाहते हैं पर वह भी नहीं मिलती . अपनी पलकों में जगह देना चाहते हैं पर वहाँ भी आँसुओं की समय्या है ...फिर क्या करें ...अुनत्तरित प्रश्न उठाती सुन्दर कविता दीदी
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