घर में प्रवेश करते ही प्रतीक ने वेतन का पैकेट
पत्नी प्रतिमा के हाथों में थमाया और हाथ मुँह धोने के लिए बाथरूम में घुस गया ! बाथरूम
से बाहर आया तो देखा प्रतिमा रुपये गिन रही थी ! अचानक ही प्रतीक असहज सा हो गया !
“अम्माँ के कमरे में जा रहा हूँ ! चाय वहीं ले
आना !” प्रतीक ने कमरे से बाहर निकलते हुए प्रतिमा से कहा !
अलमारी में रुपये रख कर प्रतिमा चाय बनाने के
लिए किचिन में चली गयी !
अम्माँ की तबीयत बहुत खराब चल रही थी ! बाबूजी
भी अस्सी के पार हो चुके थे ! उनका स्वस्थ या अस्वस्थ होना कुछ मायने नहीं रखता था
! वर्षों पहले रिटायर हो चुके थे ! गाँव में न अच्छे डॉक्टर्स थे न इलाज की कोई
अच्छी व्यवस्था ! पत्नी की सेहत जब बहुत अधिक गिरने लगी तो इकलौते बेटे के पास
दिल्ली आने के अलावा और कोई विकल्प नहीं बचा था उनके पास ! दिल्ली में इलाज अच्छा
हो या न हो मँहगा ज़रूर बहुत था ! यहाँ आकर वे सिर्फ घर के ही होकर रह गए थे ! ना
किसीको जानते पहचानते थे ना दिल्ली की जीवन शैली की उन्हें आदत थी ! बस हैरान
परेशान बीमार पत्नी के सिरहाने बैठे रहते और उनकी पल पल गिरती दशा को देख व्याकुल
होते रहते !
प्रतिमा को अपने छोटे से फ़्लैट में बीमार सास
और ससुर का यूँ आ जाना ज़रा भी नहीं सुहाया लेकिन कर भी क्या सकती थी ! इकलौते बेटे
बहू का फ़र्ज़ तो निभाना ही था चाहे हँस कर या रोकर !
चाय पीते-पीते बाबूजी ने बताया, “दिन में
डॉक्टर आये थे बबुआ ! तुम्हारी अम्माँ को जो बार बार दौरा सा आ जाता है उसके लिए
एम आर आई करवाने के लिए कह गए हैं ! कल न हो तो आधे दिन की छुट्टी ले लेना तो दिखा
देना अपनी अम्माँ को !” डॉक्टर का पर्चा देख प्रतीक का चेहरा उतर गया था !
“आप फ़िक्र ना करें बाबूजी ! मैं करता हूँ कुछ
इंतजाम !” कह कर प्रतीक अपने कमरे में आ गया ! कमरे में प्रतिमा का मूड बहुत उखड़ा
हुआ था,”तनख्वाह के रुपयों में दो हज़ार रुपये कम निकले ! किसीको दिए हैं क्या ?”
“हाँ ! अम्माँ बाबूजी अचानक से आये थे ना पिछले
महीने ! तब अम्माँ के टेस्ट्स वगैरह कराने के लिए शुक्ला जी से लिए थे दो हज़ार
रुपये ! आज सबको तनख्वाह मिली तो उन्होंने माँग लिए ! देने तो थे ही ! मना कैसे
करता !” प्रतीक की आवाज़ में मायूसी थी ! “अब कल फिर डॉक्टर ने एम आर आई कराने को
बोला है ! कम से कम चार पाँच हज़ार कल खर्च हो जायेंगे !”
प्रतिमा का पारा आसमान पर चढ़ चुका था !
”मुझे कुछ नहीं पता है ! दो महीने से विशु ट्रैकिंग
पर जाने के लिए पाँच हज़ार रुपये माँग रहा है ! हमारा भी इकलौता बेटा है ! पिछले
महीने भी उसे समझा बुझा कर टाल दिया था मैंने ! इस बार नहीं होगा यह ! अम्माँ
बाबूजी को गाँव की बस में बिठा दो कल ! ये रुपये मेरे विशु के लिए हैं ! इनको हाथ
नहीं लगाने दूँगी मैं !”
प्रतिमा की आवाज़ तार सप्तक में गूँज रही थी
! प्रतीक सहम गया था !
“अरे क्या हो गया है तुम्हें ? धीरे बोलो !
बाबूजी सुन लेंगे तो क्या सोचेंगे !”
बाबूजी स्याह चेहरा लिये दरवाज़े पर ही खड़े थे !
अम्माँ के कमरे से काँपती थरथराती आवाज़ आ रही थी, “बबुआ रे !”
बाबूजी की छाती फटी जा रही थी ! उनके चहरे पर की
स्याही के कुछ छींटे उड़ कर प्रतीक के चहरे पर भी फ़ैल गए थे लेकिन प्रतिमा इस सबसे
असम्पृक्त अपने रौद्र रूप में चंडिका बनी खड़ी हुई थी !
चित्र - गूगल से साभार
साधना वैद
मर्मस्पर्शी
ReplyDeleteहार्दिक धन्यवाद केडिया जी ! बहुत बहुत आभार आपका !
Deleteआदरणीय साधना जी | इस लघुकथा ने मानों निशब्द कर दिया ! तंगहाली के कुचक्र के मध्य स्वार्थलोलुपता और जरूरत के बीच का ये त्रिशंकु मन विदीर्ण कर गया | सभ्य समाज की ये कडवी और सार्थक अभिव्यक्ति लेखन शैली से विषय शब्दों में खूब जीवंत हो गया |हार्दिक शुभकामनाएं और आभार इस मार्मिक कथा के लिए |
ReplyDeleteआपकी हृदय से आभारी हूँ रेणु जी इतनी सार्थक प्रतिक्रिया के लिए ! कहानी आपको पसंद आयी मेरा श्रम सार्थक हुआ ! बहुत बहुत धन्यवाद आपका !
Deleteबेहद हृदयस्पर्शी
ReplyDeleteहार्दिक धन्यवाद अनुराधा जी ! हृदय से आभार !
Deleteह्रदय स्पर्शी रचना |
ReplyDeleteहृदय से आभार आपका ! बहुत बहुत धन्यवाद !
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