एक श्रद्धांजलि कलम के सिपाही श्रद्धेय प्रेमचंद को
छाया कोहरा
भारी अलाव पर
ठण्ड की रात
मुश्किल जीना
फुटपाथ की शैया
बर्फ सी रात
सीली लकड़ी
बुझ गया अलाव
जला नसीब
ठिठुरा गात
किटकिटाये दाँत
जमा ग़रीब
फटा कम्बल
बदन चीर जाये
बर्फीली हवा
कहाँ से पाए
गर्म चाय की प्याली
सर्दी की दवा
सोये हुए हैं
महलों के मालिक
गर्म रजाई
ओढ़े हुए हैं
महलों के निर्माता
फटी दुलाई
दीन झोंपड़ी
जीर्ण शीर्ण बिस्तर
कटे न रात
पक्के मकान
मुलायम रजाई
गर्म है गात
पूस की रात
‘हल्कू’ की याद आई
रिसता घाव
हट जाए कोहरा
जल जाए अलाव
चाँद ने पूछा
कौन पड़ा उघड़ा
सर्द रात में
“धरतीपुत्र !” बोले
तारे एक साथ में
आज भी ‘हल्कू’
बिताते सड़क पे
पूस की रात
कुछ भी न बदला
स्वतन्त्रता के बाद !
साधना वैद
आज भी ‘हल्कू’
ReplyDeleteबिताते सड़क पे
पूस की रात
कुछ भी न बदला
स्वतन्त्रता के बाद
बहुत सुंदर श्रद्धांजली कलम के सिपाही को आदरणीया साधना जी | सागर में गागर हैं सभी पंक्तियाँ सस्नेह शुभकामनाएं||
आपका हृदय से बहुत बहुत धन्यवाद एवं आभार रेणु जी ! रचना आपको अच्छी लगी मेरा लिखना सफल हुआ !
Deleteहार्दिक धन्यवाद एवं आभार मीना जी ! सप्रेम वन्दे !
ReplyDeleteबहुत सुन्दर
ReplyDeleteहार्दिक धन्यवाद केडिया जी ! आभार आपका !
Deleteबहुत सुंदर प्रस्तुति
ReplyDeleteउम्दा रचना है |
ReplyDeleteहार्दिक धन्यवाद जी ! दिल से आभार आपका !
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