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Saturday, August 1, 2020

पूस की रात


एक श्रद्धांजलि कलम के सिपाही श्रद्धेय प्रेमचंद को


छाया कोहरा 
भारी अलाव पर
ठण्ड की रात


मुश्किल जीना
फुटपाथ की शैया
बर्फ सी रात


सीली लकड़ी
बुझ गया अलाव
जला नसीब 


ठिठुरा गात
किटकिटाये दाँत
जमा ग़रीब


फटा कम्बल
बदन चीर जाये
बर्फीली हवा 


कहाँ से पाए
गर्म चाय की प्याली
सर्दी की दवा 


सोये हुए हैं
महलों के मालिक
गर्म रजाई


ओढ़े हुए हैं
महलों के निर्माता
फटी दुलाई


दीन झोंपड़ी
जीर्ण शीर्ण बिस्तर
कटे न रात


पक्के मकान
मुलायम रजाई
गर्म है गात


पूस की रात
‘हल्कू’ की याद आई
रिसता घाव
हट जाए कोहरा
जल जाए अलाव


चाँद ने पूछा
कौन पड़ा उघड़ा
सर्द रात में
“धरतीपुत्र !” बोले
तारे एक साथ में


आज भी ‘हल्कू’
बिताते सड़क पे
पूस की रात
कुछ भी न बदला
स्वतन्त्रता के बाद !



साधना वैद

8 comments :

  1. आज भी ‘हल्कू’
    बिताते सड़क पे
    पूस की रात
    कुछ भी न बदला
    स्वतन्त्रता के बाद
    बहुत सुंदर श्रद्धांजली कलम के सिपाही को आदरणीया साधना जी | सागर में गागर हैं सभी पंक्तियाँ सस्नेह शुभकामनाएं||

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    1. आपका हृदय से बहुत बहुत धन्यवाद एवं आभार रेणु जी ! रचना आपको अच्छी लगी मेरा लिखना सफल हुआ !

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  2. हार्दिक धन्यवाद एवं आभार मीना जी ! सप्रेम वन्दे !

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  3. बहुत सुन्दर

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    1. हार्दिक धन्यवाद केडिया जी ! आभार आपका !

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  4. बहुत सुंदर प्रस्तुति

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  5. उम्दा रचना है |

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    1. हार्दिक धन्यवाद जी ! दिल से आभार आपका !

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