मेरे आराध्य,
मेरे श्याम साँवरे,
अब तुम गोकुल कभी न आना !
गोकुल में अब कुछ भी वैसा नहीं
रहा है
जैसा तुम कभी इसको छोड़ गये थे
!
मेरे कान्हा,
अब जो आओगे
तुम्हारे मन में बसी यहाँ की
चिरपरिचित सुंदर छवियाँ तुम्हें
नितांत अपरिचित सी और बिगड़ी हुई
मिलेंगी
और तुम्हारे हृदय की स्मृति
मंजूषा में
संकलित अनेकों स्मृतियाँ
आहत हो क्षत विक्षत हो जायेंगी !
मेरे मनमोहना,
तुमसे मिलने के लिये
कलसी हाथों में लिये जमुना का
शीतल,
मधुर जल भरने के बहाने
जाने कितने पहर मैंने सखियों के
साथ
जमुना के तट पर
तुम्हारी प्रतीक्षा में बिताये
हैं
लेकिन अब जमुना भी प्रदूषित हो
गयी है
और घर के नलों में ही जमुना का
वह प्रदूषित पानी आने लगा है
इसलिए अब कोई गोपी पानी भरने के
लिये
जमुना के तट पर नहीं जाती !
मेरे कुँवर कन्हैया,
पहले गोपियाँ घी,
दूध, दही, माखन
बेचने के बहाने गोकुल की गलियों
में
विचरण करती दिखाई देती थीं और तुम
माखन चुराने के बहाने
उनके साथ खूब अठखेलियाँ करते थे
तुम्हारी वह मनमोहिनी छवि आज भी
हर गोपी के हृदय पटल पर अंकित है
!
लेकिन मेरे मदन गोपाल ,
अब घी,
दूध ,दही, मक्खन सब
थैलियों में बंद मिलने लगा है
और तुम्हारी परम प्रिय गायें
लावारिस भूखी प्यासी सड़कों पर
भटकती दिखाई देती हैं !
इन्हें इस तरह विवश भटकता देख
तुम्हारा हृदय विदीर्ण हो जायेगा
!
मेरे कृष्ण कन्हैया,
मुझे नहीं लगता कि
तुम्हारे लिये यहाँ अब ऐसा कोई
आकर्षण बचा है जिसकी प्रत्याशा
तुम्हें यहाँ खींच कर ले आये !
मेरे मुरली मनोहर,
उस युग में तुमने कंस के त्राण से
ग्रामवासियों को बचाया था और
अपनी दिव्य अलौकिक बाँसुरी की तान
से
सर्वत्र अनन्त शान्ति,
धर्म,
सद्भावना और सदाचार की
स्थापना की थी !
लेकिन मेरे नंदनंदन,
इस युग में तुम्हारे लिये
चुनौतियाँ बहुत कठिन हैं !
तब एक कंस था
आज हर गली,
हर मोहल्ले में
जगह-जगह पर करोड़ों कंस घात लगाये
बैठे हैं
तुम कितने कंसों का वध करोगे ?
यहाँ साधू संत और भद्र जन का
मुखौटा पहने
कितने कंस,
कितने राक्षस,
कितने असुर अपनी वंश बेल बढ़ा रहे
हैं
उसका अनुमान लगाना असंभव है !
इसलिए मेरे वेणुगोपाल,
तुम गोकुल मत आना !
यहाँ आकर तुम्हें घोर निराशा ही
होगी !
क्योंकि आज वह मानव भी
जो चाहे कर्म से कंस नहीं है
अपने मन के भय और संशय,
अहंकार और आक्रोश के
असुरों से जूझ रहा है !
और मेरे देवता,
प्रत्यक्ष में उपस्थित सदेह शत्रु
को तो
ललकारा जा सकता है ,
परास्त किया जा सकता है
लेकिन किसीके मन में छिपे शत्रु
का दमन
तो उस मानव को स्वयं ही करना होगा
तुम्हारे करने से कुछ नहीं होगा !
इसलिये हे गिरिधारी
मेरा तुमसे यही कहना है
कि तुम अपने मन में बसी
अपनी मोहक स्मृतियों के साथ जहाँ
हो
वहीं सुखपूर्वक रहो !
तुम्हारे उस सुखद संसार में कोई
व्यवधान आये ऐसा मैं नहीं चाहती
इसलिए तुम्हारे दर्शनों की प्यासी
तुम्हारी यह राधा
अपने हृदय पर मनों भारी वज्र रख
कर
आज तुमसे यही विनती करती है कि
तुम गोकुल में मत आना !
साधना वैद
ReplyDeleteसादर नमस्कार ,
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल मंगलवार (11 -8 -2020 ) को "कृष्ण तुम पर क्या लिखूं!" (चर्चा अंक 3790) पर भी होगी,आप भी सादर आमंत्रित हैं।
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कामिनी सिन्हा
सुन्दर भाव लिए रचना |
ReplyDeleteबहुत बहुत धन्यवाद एवं आभार जीजी !
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