
आये थे तेरे शहर में मेहमान की तरह,
लौटे हैं तेरे शहर से अनजान की तरह !
सोचा था हर एक फूल से बातें करेंगे हम,
हर फूल था मुझको तेरे हमनाम की तरह !
हर शख्स के चहरे में तुझे ढूँढते थे हम ,
वो हमनवां छिपा था क्यों बेनाम की तरह !
हर रहगुज़र पे चलते रहे इस उम्मीद पे,
यह तो चलेगी साथ में हमराह की तरह !
हर फूल था खामोश, हर एक शख्स अजनबी,
भटका किये हर राह पर गुमनाम की तरह !
अब सोचते हैं क्यों थी तेरी आरजू हमें,
जब तूने भुलाया था बुरे ख्वाब की तरह !
तू खुश रहे अपने फलक में आफताब बन,
हम भी सुकूँ से हैं ज़मीं पे ख़ाक की तरह !
साधना वैद
जी नमस्ते,
ReplyDeleteआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शनिवार (३०-११ -२०१९ ) को "ये घड़ी रुकी रहे" (चर्चा अंक ३५३५) पर भी होगी।
चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट अक्सर नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
आप भी सादर आमंत्रित है
….
अनीता सैनी
आपका हृदय से बहुत बहुत धन्यवाद एवं आभार अनीता जी ! सप्रेम वन्दे !
Deleteजी नमस्ते,
ReplyDeleteआपकी लिखी रचना हमारे सोमवारीय विशेषांक
२ नवंबर २०१९ के लिए साझा की गयी है
पांच लिंकों का आनंद पर...
आप भी सादर आमंत्रित हैं...धन्यवाद।,
आपका हृदय से बहुत बहुत धन्यवाद एवं आभार श्वेता जी ! सप्रेम वन्दे ! २ नवम्बर के स्थान पर २ दिसंबर कर लीजिये अपनी सूचना में ! आभार !
Deleteबहुत खूब
ReplyDeleteहार्दिक धन्यवाद नदीश जी ! आभार आपका !
Deleteउम्दा रचना |
ReplyDeleteहार्दिक धन्यवाद जीजी ! दिल से आभार !
Deleteवाह!!साधना जी ,बहुत खूब!!
ReplyDeleteहृदय से आपका बहुत बहुत धन्यवाद शुभा जी ! आभार आपका !
Deleteबहुत सुंदर
ReplyDeleteहार्दिक धन्यवाद केडिया जी ! आभार आपका !
Delete