Followers

Thursday, April 22, 2010

तुम्हारे लिये

ना जाने कितने
अमलतास,
गुलमोहर,
पलाश
खिल खिल कर
बिखर गए लेकिन
मेरे प्यार की एक कली
तुम्हारे उपवन की
किसी डाल पर
नहीं खिल पाई !
ना जाने कितने
आसावरी,
बागेश्री,
भैरवी
की मधुर बंदिशों में
सजे तुम्हारी
वन्दना के लिये
अर्पित भाव गीत
दिग्दिगंत में
ध्वनित
प्रतिध्वनित हो
मौन हो गए
लेकिन उनकी
आकुल पुकार
तुम तक
नहीं पहुँच पाई !
ना जाने कितने
समर्पण,
श्रद्धा,
भक्ति
जैसे अनन्य भावों के
दीप जला कर
तुम्हारी आराधना के लिये
मैं थाल संजोती रही
लेकिन
उस अर्ध्य की
उपेक्षा कर तुम
ना जाने कहाँ
उठ कर
चल दिये !
मेरे मन में
वो अनखिली कलियाँ
आज भी अंकुरित हैं,
वो मौन हो चुके
अनसुने भाव गीत
आज भी गूँज रहे हैं,
थाल में संजोये
वो उपेक्षित दीप
आज भी उसी तरह से
प्रज्वलित हैं
लेकिन
अब मुझे तुम्हारी
प्रतीक्षा नहीं है !
एक बार फिर
इनका निरादर करने
तुम ना आना !
यह सारा प्रसाद
अब मैंने
उन सबके साथ
साझा कर लिया है
जो स्वयम
भगवान तो नहीं
लेकिन
जिनके मन में
भगवान ज़रूर बसते हैं !

साधना

11 comments :

  1. खिल खिल कर
    बिखर गए लेकिन
    मेरे प्यार की एक कली
    तुम्हारे उपवन की
    किसी डाल पर
    नहीं खिल पाई !

    इन पंक्तियों ने दिल छू लिया... बहुत सुंदर ....रचना....

    ReplyDelete
  2. bahgwan to nahi par man me baste hai jroor

    bahut khoob............

    ReplyDelete
  3. अत्यंत भावपूर्ण रचना , सुंदर समापन !
    "…यह सारा प्रसाद
    अब मैंने
    उन सबके साथ
    साझा कर लिया है
    जो स्वयम
    भगवान तो नहीं
    लेकिन
    जिनके मन में
    भगवान ज़रूर बसते हैं!"

    प्यार ,स्नेह , ममत्व पर सच्चा अधिकार उनका ही तो है
    "जिनके मन में
    भगवान बसते हैं!"
    उत्कृष्ट रचना के लिए साधुवाद !

    - राजेन्द्र स्वर्णकार

    ReplyDelete
  4. बहुत सुंदर


    bahut khub


    shekhar kumawat


    http://kavyawani.blogspot.com/

    ReplyDelete
  5. अति सुंदर ह्रदय को छूने वाले भाव और मन में घर कर गए शब्द |सुंदर अभिब्यक्ति के लिए बधाई |
    आशा

    ReplyDelete
  6. बहुत खूब ... पढ़ते हुवे एहसास ही न्हैई हुवा कौन से रस की रचना है ... धीरे धीरे अंत आते आते सब कुछ सॉफ हो गया ... ये तो अनंत से अंतस की पीड़ा की गाथा है ... बहुत लाजवाब ...

    ReplyDelete
  7. एक अत्यंत सुन्दर एबं भावनात्मक कविता ... पढकर मन बोझिल हो आया ... पढकर कहीं एक नाराज़गी ... पढकर ... हाँ आगे भी राह है !

    ReplyDelete
  8. यह सारा प्रसाद
    अब मैंने
    उन सबके साथ
    साझा कर लिया है
    जो स्वयम
    भगवान तो नहीं
    लेकिन
    जिनके मन में
    भगवान ज़रूर बसते हैं !
    sahi kah rahi hain

    ReplyDelete
  9. भावुक कर देने वाली रचना ,क्यों ये इन्तजार केवल औरत के हिस्से आता हैलेकिन अब वह प्रतीक्षा में बूढ़ी ें होती,उसने खुद जीना सीख लिया है| बधाई|

    ReplyDelete