ज़िंदगी
उसी तरह उलझ गयी है
जैसे
बहुरंगी स्वेटर बुनते वक्त
सारी ऊनें उलझ जाती हैं और
जब
तक उन्हें पूरी तरह से
सुलझा
न लिया जाये
एक
फंदा भी आगे बुनना
असंभव
हो जाता है !
भागती
दौड़ती
सुबह
शामों के बीच
किसी
तरह समय निकाल
स्वेटर
की उलझी ऊन को तो
मैं
फिर भी सुलझा लूँगी
लेकिन
पल-पल दामन छुड़ा
चोरों
की तरह भागती
इस
ज़िंदगी ने तो
इतना
वक्त भी नहीं दिया है कि
हाथों
की इन लकीरों को मिटा
तकदीर
की तख्ती पर कोई
नयी
इबारत लिख सकूँ !
अब
नसीब में जो कुछ
हासिल
होना लिखा है
हाथ
की इन्हीं उलझी
लकीरों
में छिपा है !
बस
कोई इन लकीरों को
सुलझाने
की तरकीब
मुझे
बता दे !
साधना
वैद
हाथ की उलझी लकीरों को नज़रअंदाज़ कर बस अपने कर्म के बारे में ही सोचें ...सुलझ ही जाएंगी लकीरें भी .... सटीक बिम्ब के साथ तुलना की है उलझी सी ज़िंदगी की .... सुंदर प्रस्तुति
ReplyDeleteभागती जिंदगी के बीच मन की उहापोह को बखूबी उकेरा है ...!!
ReplyDeleteसुंदर अभिव्यक्ति ...!
शुभकामनायें साधना जी ...!!
एक आम महिला का दर्द और विवशता इस कविता में है तथा एक प्रश्न भी।
ReplyDeleteलेकिन इस का जवाब भी होना चाहिए।
कोई नहीं बताएगा
सुलझाने की तरकीब
तलाशनी पड़ेगी खुद ही।
.
ReplyDeleteसुंदर अभिव्यक्ति !
क्या बात है!!! वाह!
ReplyDeleteअजीब बात है न .... सुलझाकर बुनो , फिर खोलो ... कोई नया डिजाईन , कोई नया रंग ... फिर धागे उलझते हैं , क्रम चलता रहता है अनवरत एक स्वेटर बनाने का , जिसमें जिंदगी हर लकीरों को बता सके
ReplyDeleteइस ज़िंदगी ने तो
ReplyDeleteइतना वक्त भी नहीं दिया है कि
हाथों की इन लकीरों को मिटा
तकदीर की तख्ती पर कोई
नयी इबारत लिख सकूँ !
शायद हम सबके दिल पढ़ लिए आपने.....
सादर.
हाय ……एक अनसुलझा प्रश्न फिर भी एक जवाब ही हो सकता है इसका…………जो हो रहा है होने दें और जो होगा अच्छा होगा जिस दिन हम अपनी ऐसीसोच बना लेंगे सारी उलझी लकीरें सुलझ जायेंगी वैसे ये कहना आसान है और इस पर चलना मुश्किल जानती हूं मगर सुकून यहीं है और यही आखिरी हल है मेरे ख्याल से तो।
ReplyDeleteक्या बात है..! सुंदर अभिव्यक्ति ...!
ReplyDeleteशुभकामनायें साधना जी .
वाह ...बहुत खूब ।
ReplyDeleteइतना वक्त भी नहीं दिया है कि
ReplyDeleteहाथों की इन लकीरों को मिटा
तकदीर की तख्ती पर कोई
नयी इबारत लिख सकूँ !
bahut hi badhia poem hain..
sundar
क्या कहने साधना जी बहुत सुंदर
ReplyDeleteआपको पढना वाकई सुखद अनुभव है।
हाथों की लकीरे मिट नहीं सकती बहुत सही सोच |
ReplyDeleteआशा
बहुत ही खुबसूरत
ReplyDeleteऔर कोमल भावो की अभिवयक्ति......
आदरणीया साधना जी बहुत सुन्दर भाव और प्रस्तुति ....कहते हैं की रेखाएं बदलती रहती हैं ..
ReplyDeleteकर्मन्येवाधिकारस्ते माँ फलेषु कदाचन .............सब मंगल होता रहे....
भ्रमर ५
सुन्दर भाव लिए सुन्दर अभिव्यक्ति...
ReplyDeleteबहुत सुन्दर रचना...
ReplyDeleteसादर.
बस कोई इन लकीरों को
ReplyDeleteसुलझाने की तरकीब
मुझे बता दे ! .
......बस यही एक उलझन है जो आजतक नहीं सुलझ पाई .....बहुत सुन्दर भावपूर्ण अभिव्यक्ति
प्रोत्साहन के लिए आप सभीका ह्रदय से धन्यवाद ! आपका इस ब्लॉग पर सदैव स्वागत है !
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