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ज़रूरत थी ऐसे मकानों की जिन्हें कमज़ोर और मध्यम आय वाले बेघर लोग
किश्तों पर खरीद सकें परन्तु बने ऐसे मकान जिनकी कीमत आम आदमी की पहुँच से बहुत
दूर है ! आखिर ऐसा क्यों हुआ ? यह बात छिपी नहीं है कि देश में अघोषित धन, जिसे
काला धन भी कहा जाता है, की भरमार है ! इधर कुछ समय से इसकी राजनैतिक चर्चा भी
बहुत हो रही है ! काले धन को ठिकाने लगाने के लिये सबसे सुविधाजनक साधन है ज़मीन और
जायदाद में निवेश कर देना, क्योंकि यह सबको पता है कि ज़मीन या मकान खरीदने में या
बेचने में लगभग ५०% काले धन का इस्तेमाल हो जाता है ! जिस तरह कैश रखने से सरल
होता है सोना रखना क्योंकि यह कम जगह घेरता है और सोने से सरल होता है हीरे रखना क्योंकि
यह सोने से भी कम स्थान घेरते हैं ! उसी तरह मँहगे मकान बनाने में आधिक से अधिक काला
धन खप जाता है ! बिल्डर्स ने भी ऐसा ही किया और मँहगे मकानों की बहुतायत हो गयी ! इनको
खरीदने वाले या बुक करने वाले अधिकांश लोग भी वैसे ही लोग हैं जिन्हें मकान की
आवश्यकता तो है ही नहीं वे केवल अपने काले धन को ठिकाने लगाने के लिये ही बेनामी या
अपने परिवार के किसी सदस्य के नाम से, और कहीं-कहीं तो अपने ड्राइवरों और नौकरों तक के नाम से घर खरीद लेते हैं और उनके रखरखाव के लिये एक हाउसकीपर
छोड़ देते हैं इस उम्मीद से कि शायद कभी यह इन्वेस्टमेंट लाभकारी हो जाए ! फिलहाल
तो काला धन छिपाने में सहूलियत हो ही गयी !
दरअसल देश में काला धन इतना अधिक है कि उससे सारे देश के बेघरबार
लोगों के लिये घर बनाए जा सकते हैं ! आवश्यकता है ऐसी नीतियों की जिनसे काला धन भी
देश हित में काम आ सके ! आखिर धतूरा जो ज़हर होता है उसके भी ऐसे उपयोग हैं जो कई
रोगों को ठीक कर देते हैं !
यही तरीका गाँव की आबादी के शहरों की ओर पलायन को रोकने में भी कारगर
हो सकता है ! आज खेती में जितने कामगारों की आवश्यकता होती है उससे कहीं अधिक
कामगार गाँवों में बसे हुए हैं ! लगभग एक व्यक्ति का काम तीन व्यक्ति कर रहे हैं !
नतीजतन गाँवों में बेतहाशा बेरोज़गारी बढ़ रही है ! यदि गाँवों के पास ही औद्योगिक
इकाइयाँ लगाई जायें तो गाँवों में ही रोज़गार की संभावनायें बढ़ जायेंगी और ग्रामवासियों
का शहरों की ओर पलायन पर विराम लगेगा ! लेकिन समस्या यह है कि हमारे गाँव ढंग की सड़कों
से जुड़े नहीं हैं, बिजली आती नहीं है, उद्योग लगाने के लिये जिस बुनियादी व्यवस्था
की ज़रूरत होती है उसका अभाव है ! फिर कोई भी उद्योग अकेला नहीं लगता ! उसके साथ ही
उस उद्योग से जुड़ी अनेकों छोटी बड़ी सहायक इकाइयों ( एन्सीलरीज़ ) का लगाया जाना भी
नितांत आवश्यक होता है जो उद्योग को चलाने में सहायक होती हैं ! संक्षेप में एक
छोटी मोटी इंडस्ट्रियल स्टेट की स्थापना ही करनी होती है ! उद्योग के साथ उसमें हर
श्रेणी के काम करने वालों की रिहाइश की व्यवस्था तथा उनके परिवार के सदस्यों को एक
अच्छा जीवन जीने के लिये सभी समुचित आवश्यक्ताओं की आपूर्ति की व्यवस्था भी करना
ज़रूरी हो जाता है जिसमें यथोचित शिक्षा, उपचार व मनोरंजन सभी कुछ आ जाता है ! इन सबके
लिये भूमि कहाँ से आयेगी यह भी आज का एक बड़ा यक्ष प्रश्न है जिसके उत्तर की तलाश
में पूरा देश तो है ही, राजनीति के अखाड़े में ताल ठोक कर सभी दलों के नेता भी आ खड़े
हुए हैं पर हल ढूँढने की जगह वे सभी गलेबाज़ी का कमाल दिखा एक दूसरे को चित्त कर
देने की जुगत में अधिक लगे रहते हैं !
गाँवों के पास यदि उद्योग लगाए जायेंगे तो गाँवों के बेरोजगारों को
अपने घर के पास ही काम मिलेगा, वे अपने घर परिवार का ध्यान रख सकेंगे, शहरों की
आबादी की बेतहाशा वृद्धि पर रोक लगेगी, स्लम में रहने वालों को नारकीय जीवन से
मुक्ति मिलेगी, शहरों का सौदर्य बढ़ेगा व प्रदूषण में कमी आयेगी, गाँवों का भी
विकास होगा, देश की गरीबी कुछ हद तक दूर होगी, विश्व में भारत की छवि में सुधार
होगा और यदि इस काम के लिये काले धन के धतूरे का उपयोग दवा के रूप में हो सके तो
सोने पर सुहागा हो जाएगा ! आपका क्या विचार है ! क्या आप भी मेरी बात से सहमत हैं
?
साधना वैद
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