लाख तुमने पहन रखा
हो
खामोशियों का जिरह
बख्तर
मेरी आहें इतनी भी बेअसर
नहीं
कि तुम्हारे इस कवच
को
पिघला न सकें !
जिस दिन यह पिघल
जाएगा
कैसे सामना करोगे
मेरे सवालों का ?
क्या उत्तर दोगे
अपनी इस
अनायास ओढ़ी हुई
बेरुखी का ?
क्या बहाना बनाओगे
एक बार फिर बरबस
अपना
हाथ छुड़ा कर दूर चले
जाने का ?
या कैसे आँखें मिला
पाओगे उससे
जिसकी आस्था, जिसकी
भक्ति
जिसके विश्वास,
जिसकी अंध श्रद्धा को
तुमने बार-बार छला
है ?
क्यों छला है
शायद इसका जवाब
तुम्हें खुद नहीं पता !
किसीको उत्तर दो न दो
लेकिन क्या तुम कभी
खुद को भी इस सवाल
का जवाब
दे पाए हो ?
यह तुम्हारी फितरत
है या मजबूरी
कौन बताए ?
साधना वैद
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