ज़िंदगी के टेढ़े मेढ़े रास्तों पर
अब तक चलती आई हूँ
तुम्हारा हाथ थामे !
कभी हाथों में संचित
चंद पाँखुरियाँ बिछा कर
तुम्हारे पैरों को कंकड़ों की
चुभन से बचाने के लिए
कभी नीचे झुक कर
यथा शक्ति राह में बिछे
कंकड़ पत्थरों को बीन कर
तुम्हारी राह को सुगम
बनाने के लिए !
उम्र खत्म हुई जाती है
ज़रा भी कम होतीं
नज़र नहीं आतीं !
समय के साथ
मेरी क्षमता और सामर्थ्य
दोनों अब चुकी जाती हैं !
तुम्हारे ही शब्दों में
अद्भुत इच्छाशक्ति
अदम्य साहस और
अनिर्वचनीय उत्साह का
तुम्हारा यह ‘शक्तिपुंज’
अब बिलकुल रीत चुका है !
तुम समझ रहे हो ना ?
अब आगे का सफर तुम्हें
अकेले ही तय करना होगा !
इस सफर में तुम
सम्हाल तो लोगे ना
खुद को भी और
जब तक मैं हूँ
मुझे भी ?
साधना वैद
उम्दा रचना |
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