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Sunday, August 27, 2017

धुंध



नज़र कमज़ोर हो चली है
आँखों से धुँधला दिखने लगा है
अच्छा ही है !
धुंध के परदे में कितनी
कुरूपताएं, विरूपताएं छिप जाती हैं
पता ही नहीं चल पाता और मन
इन सबके अस्तित्व से नितांत अनजान
उत्फुल्ल हो मगन रहता है !
नया चश्मा भी नहीं बनवाती अब
क्या करना है
जो नज़र साफ़ हो जाए और
सारे दाग़ धब्बे, कुरूपताएं, विरूपताएं
एकबारगी ही दिखाई दे जाएँ
तो क्या फिर इतने सुख से जी सकूंगी ?
नज़र के साथ साथ
दिमाग़ की धुंध को भी अब
इसीलिये हटाना नहीं चाहती
कहीं बड़े जतन से पाले पोसे
ये भरम टूट न जाएँ और
यथार्थ एकबारगी ही
अपनी सारी कटुता के साथ
मेरे सामने उजागर न हो जाए !
कमरे की छत और दीवारों पर लगे
जाले भी अब साफ़ नहीं करती
इनकी आड़ में बेरंग हुई दीवारें
और जगह-जगह से उखड़ा प्लास्टर
छिपे जो रहते हैं !
लोग मुझे निपट आलसी,
अकर्मण्य, फूहड़ जो कुछ भी
समझते हैं तो समझें !
कुछ बदसूरत छिपाने के लिए
उससे भी बड़ी बदसूरती का
सहारा लेना ही पड़ता है !
वो कहते हैं ना
तिनका ओट पहाड़ होता है
मैं तो हर ओर से कुरूप और
भयावह पहाड़ों की विशाल
श्रंखला से घिरी हुई हूँ
इसीलिये मैंने अपनी आँखों के आगे
हर तरफ तिनकों से बुने
परदे ही परदे टाँग लिए हैं !    
आखिर सुख से जीने के लिए
किसी भरम का होना भी तो
ज़रूरी है ना !
कहो, ठीक कहा न मैंने ?

साधना वैद


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