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Sunday, September 17, 2017

बस ! अब और नहीं ---



वक्त और हालात ने
इतने ज़ख्म दे दिए हैं
कि अब हवा का
हल्का सा झोंका भी
उनकी पर्तों को बेदर्दी से
उधेड़ जाता है
मैं चाहूँ कि न चाहूँ
मेरे मन पर अंकित
तुम्हारी पहले से ही
बिगड़ी हुई तस्वीर पर 
कुछ और आड़ी तिरछी
लकीरें उकेर जाता है !
मन आकंठ दर्द में डूबा है
हर साँस बोझिल हुई जाती है
ऐसे में तुम्हारी जुबां से निकला
हर लफ्ज़ जाने क्यों
पिघले सीसे सा कानों में
उतर जाता है
और मेरे अंतर्मन की  
बड़े जतन से संजोई हुई
थोड़ी सी हरियाली को
तेज़ाब जैसी बारिश से
निमिष मात्र में ही
झुलसा जाता है !
यह इंतहा है
मेरे धैर्य की,
यह इंतहा है  
मेरी बर्दाश्त की
और यह इंतहा है
मेरी दर्द को सह जाने की
अदम्य क्षमता की !
बस ! अब और नहीं,
अब और बिलकुल भी नहीं !
अब यह ज्वालामुखी
किसी भी वक्त
फट सकता है !
जो बचा सकते हो
समय रहते बचा लो
काल के किसी भी अनजान,
अनचीन्हे, अनपेक्षित से पल में
अकस्मात ही अब
कुछ भी घट सकता है
फिर न कहना मैंने
समय रहते पहले ही
चेताया क्यों नहीं !

साधना वैद
  


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