कुछ कहते हैं ये ताँँका
उठायें बोझ
सारे जग का हम
और हमारा ?
बोलो कौन उठाये ?
सीने से चिपटाये ?
क्या दोगे तुम
किताब या कुदाल ?
खुशी या आँसू ?
खिलौने या फावड़ा?
जीवन या मरण ?
जाती बाहर
रोटी की जुगत में
माँ काम पर
मैं हूँ घर की रानी
करती चौका पानी !
हर चुनौती
आसान या मुश्किल
साध्य है मुझे !
नहीं स्वीकार अब
वर्चस्व पुरुषों का !
ओ मेरे मौला
माथे पे गहराती
चिंता की रेख
सोने की कलम से
लिख नया सुलेख !
तू है महान
धरा से नभ तक
हर दिशा में
गुंजित तेरा गान
बोझ उठाते
नये घर बनाते
न जाने कैसे
हम बेघर हुए
खुद पे बोझ हुए !
साधना वैद
व्वाहहह....
ReplyDeleteसादर नमन
सुप्रभात
ReplyDeleteशानदार सत्यपरक रचना के लिए बधाई |
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल रविवार (10-03-2019) को "पैसेंजर रेल गाड़ी" (चर्चा अंक-3269) पर भी होगी।
ReplyDelete--
चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
--
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
आपका हृदय से बहुत बहुत धन्यवाद एवं आभार शास्त्री जी ! सादर वन्दे !
ReplyDeleteहार्दिक धन्यवाद दिग्विजय जी !
ReplyDeleteहृदय से धन्यवाद जीजी !
ReplyDeleteआपकी ब्लॉग पोस्ट को आज की ब्लॉग बुलेटिन प्रस्तुति उस्ताद जाकिर हुसैन और ब्लॉग बुलेटिन में शामिल किया गया है। एक बार आकर हमारा मान जरूर बढ़ाएँ। सादर ... अभिनन्दन।।
ReplyDeleteहार्दिक धन्यवाद एवं आभार हर्षवर्धन जी !
ReplyDeleteजी नमस्ते,
ReplyDeleteआपकी लिखी रचना हमारे सोमवारीय विशेषांक
११ मार्च २०१९ के लिए साझा की गयी है
पांच लिंकों का आनंद पर...
आप भी सादर आमंत्रित हैं...धन्यवाद।
आपका हृदय से बहुत बहुत धन्यवाद एवं आभार श्वेता जी !
ReplyDeleteमार्मिक रचना
ReplyDeleteहार्दिक धन्यवाद अनीता जी !
ReplyDeleteबहुत सुंदर .... ,सादर नमस्कार आप को
ReplyDeleteहार्दिक धन्यवाद कामिनी जी !
ReplyDeleteबहुत लाजवाब...।
ReplyDeleteवाह!!!
बहुत बहुत आभार आपका सुधा जी !
ReplyDeleteयथार्थ
ReplyDeleteबेहतरीन सृजन