सुना है जब भी
दर्पण के सामने जाओ
उसमें सदैव अपना ही
प्रतिबिम्ब दिखाई
देता है
लेकिन मैं जब भी
तुम्हारे नैनों के
दर्पण के
सामने आती हूँ,
अपना प्रतिबिम्ब
देखने की साध लिए
बड़ी उत्सुकता से
उनमें निहारती हूँ
न जाने क्यों
वहाँ मुझे अपना नहीं
किसी और का ही
प्रतिबिम्ब दिखाई देता है !
नहीं समझ पाती
ऐसा क्यों होता है !
क्या वह दूसरा चेहरा
मेरे चहरे पर मुखौटा
बन
चढ़ा हुआ है या फिर
तुम्हारे नैनों का
यह अनोखा दर्पण
केवल तुम्हारे अंतर्मन
में
बसी छवियों को ही
प्रतिबिम्बित कर पाता
है
बाह्य जगत की
छवियों
को नहीं ?
कौन सुलझाए यह पहेली
?
साधना वैद
आपकी इस पोस्ट को आज की बुलेटिन विश्व नींद दिवस और ब्लॉग बुलेटिन में शामिल किया गया है। कृपया एक बार आकर हमारा मान ज़रूर बढ़ाएं,,, सादर .... आभार।।
ReplyDeleteव्वाहहहह..
ReplyDeleteसादर नमन..
आपका हृदय से धन्यवाद एवं आभार हर्षवर्धन जी !
ReplyDeleteआपका हार्दिक धन्यवाद दिग्विजय जी ! आभार !
ReplyDeleteआपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल सोमवार (18-03-2019) को "उभरे पूँजीदार" (चर्चा अंक-3278) (चर्चा अंक-3264) पर भी होगी।
ReplyDelete--
सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
--
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
आपका हृदय से बहुत बहुत धन्यवाद एवं आभार शास्त्री जी ! सादर वन्दे !
ReplyDeleteआपकी लिखी रचना मंगलवार 19 मार्च 2019 के लिए साझा की गयी है
ReplyDeleteपांच लिंकों का आनंद पर...
आप भी सादर आमंत्रित हैं...धन्यवाद।
आपका हृदय से बहुत बहुत धन्यवाद एवं आभार यशोदा जी !
ReplyDeleteहार्दिक धन्यवाद केडिया जी!
ReplyDeleteबहुत खूब! जटिल पहेली है।
ReplyDeleteThis comment has been removed by the author.
ReplyDeleteबेहद ख़ूबसूरत और उम्दा
ReplyDeleteमन के बदलाव को आईने के माध्यम से बाखूबी बयान किया है ...
ReplyDeleteबहुत खूब ...
तुम्हारे नैनों का
ReplyDeleteयह अनोखा दर्पण
केवल तुम्हारे अंतर्मन में
बसी छवियों को ही
प्रतिबिम्बित कर पाता है
बाह्य जगत की
छवियों को नहीं ?
बहुत खूब....