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Saturday, March 16, 2019

अनोखा दर्पण


सुना है जब भी
दर्पण के सामने जाओ
उसमें सदैव अपना ही
प्रतिबिम्ब दिखाई देता है
लेकिन मैं जब भी  
तुम्हारे नैनों के दर्पण के
सामने आती हूँ,
अपना प्रतिबिम्ब
देखने की साध लिए
बड़ी उत्सुकता से
उनमें निहारती हूँ
न जाने क्यों
वहाँ मुझे अपना नहीं
किसी और का ही 
प्रतिबिम्ब दिखाई देता है !
नहीं समझ पाती
ऐसा क्यों होता है !  
क्या वह दूसरा चेहरा
मेरे चहरे पर मुखौटा बन
चढ़ा हुआ है या फिर
तुम्हारे नैनों का
यह अनोखा दर्पण
केवल तुम्हारे अंतर्मन में
बसी छवियों को ही
प्रतिबिम्बित कर पाता है
बाह्य जगत की 
छवियों को नहीं ?
कौन सुलझाए यह पहेली ?


साधना वैद




14 comments :

  1. आपकी इस पोस्ट को आज की बुलेटिन विश्व नींद दिवस और ब्लॉग बुलेटिन में शामिल किया गया है। कृपया एक बार आकर हमारा मान ज़रूर बढ़ाएं,,, सादर .... आभार।।

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  2. व्वाहहहह..
    सादर नमन..

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  3. आपका हृदय से धन्यवाद एवं आभार हर्षवर्धन जी !

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  4. आपका हार्दिक धन्यवाद दिग्विजय जी ! आभार !

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  5. आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल सोमवार (18-03-2019) को "उभरे पूँजीदार" (चर्चा अंक-3278) (चर्चा अंक-3264) पर भी होगी।
    --
    सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
    --
    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
    सादर...!
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

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  6. आपका हृदय से बहुत बहुत धन्यवाद एवं आभार शास्त्री जी ! सादर वन्दे !

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  7. आपकी लिखी रचना मंगलवार 19 मार्च 2019 के लिए साझा की गयी है
    पांच लिंकों का आनंद पर...
    आप भी सादर आमंत्रित हैं...धन्यवाद।

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  8. आपका हृदय से बहुत बहुत धन्यवाद एवं आभार यशोदा जी !

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  9. हार्दिक धन्यवाद केडिया जी!

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  10. बहुत खूब! जटिल पहेली है।

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  11. बेहद ख़ूबसूरत और उम्दा

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  12. मन के बदलाव को आईने के माध्यम से बाखूबी बयान किया है ...
    बहुत खूब ...

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  13. तुम्हारे नैनों का
    यह अनोखा दर्पण
    केवल तुम्हारे अंतर्मन में
    बसी छवियों को ही
    प्रतिबिम्बित कर पाता है
    बाह्य जगत की
    छवियों को नहीं ?
    बहुत खूब....

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