करवा चौथ की सभी बहनों को हार्दिक शुभकामनायें एवं बधाई !
भारतीय महिलाएं अपने सारे तीज त्यौहार पारंपरिक तरीके से ही मनाना पसंद करती हैं इसमें कोई दो राय नहीं हैं ! फिर बात अगर सुहाग के व्रत की हो तो उनकी भक्ति भावना, निष्ठा और समर्पण की बानगी ही कुछ और होती है ! परम्पराओं और नियमों के पालन में कोई कमी न रह जाए, हर अनुष्ठान हर विधि विधान पूरी सजगता सतर्कता के साथ संपन्न किया जाए इसका वे विशेष ध्यान रखती हैं ! आखिर अपने प्रियतम की दीर्घायु, सुख व सान्निध्य की कामना जो जुड़ी रहती है इस व्रत के साथ ! इन त्यौहारों का आकर्षण और लोकप्रियता बढ़ाने में फिल्मों और टी वी ने भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है इससे इनकार नहीं किया जा सकता ! यह इसी बात से सिद्ध होता है कि धार्मिक मान्यताओं को परे सरका कर इन त्यौहारों को मनाने वालों की संख्या हर साल बढ़ती ही जा रही है !
कल करवा चौथ का त्यौहार है ! उत्तर भारत में यह त्यौहार बड़े जोश खरोश के साथ मनाया जाता है ! सुहागन स्त्रियाँ अपने पति की लंबी आयु व मंगलकामना के लिये सूर्योदय से चंद्रोदय तक निर्जल निराहार व्रत रखती है और संध्याकाल में सारे विधि विधान के साथ पूजा अर्चना कर चन्द्रमा के निकलने की आतुरता से प्रतीक्षा करती हैं ! जब आसमान में चाँद निकल आता है तब चाँद को अर्घ्य दे अपने पति के हाथ से पानी पीकर अपना व्रत खोलती है ! पति के लिये इस तरह का अनन्य प्रेम, सद्भावना और भावनात्मक लगाव सभीको प्रभावित करता है ! मुझे बहुत प्रसन्नता हो रही है आप सबसे यह बात साझा करते हुए कि हमारे शहर आगरा में गत वर्ष कई मुस्लिम बहनों ने भी इस व्रत को रखा ! उनका कहना था कि अपने पति की मंगलकामना के लिये तो वे भी यह व्रत रख सकती हैं ! इसमें धर्म को कहीं से आड़े नहीं आना चाहिये !
बात विषय से कुछ हट गयी है ! दरअसल इस पोस्ट को लिखने का मेरा आशय केवल इतना जानना था कि फिल्मों और टी वी को देख कर चलनी में चाँद देखने की यह जो नई परम्परा चल पड़ी है उसका औचित्य क्या है ? करवा चौथ की कहानी के अनुसार सात भाइयों की इकलौती लाड़ली बहन को चलनी में जो चाँद दिखाया गया था वह तो नकली था ! और चलनी के आर पार उस नकली चाँद की पूजा करने के बाद उसे नुक्सान भी उठाना पड़ा था ! गगन का चाँद तो स्पष्ट गोल दिखाई दे ही जाता है फिर चलनी की आवश्यकता क्यों पड़ती है ? कहानी कहती है कि व्रत के कारण भूख प्यास से आकुल व्याकुल बहन की हालत भाइयों से जब देखी ना गयी तो उन्होंने पेड़ पर चढ़ कर मशाल जला कर चलनी के पीछे से नकली चाँद बना कर बहिन को दिखा दिया और उसे कह दिया कि चाँद को अर्घ्य देकर वह अपना व्रत खोल ले ! पेड़ के पत्तों के पीछे चलनी के अंदर गोलाई में मशाल का प्रकाश देख बहन को विश्वास हो गया कि चाँद सच में निकल आया है और उसने उस नकली चाँद को अर्घ्य देकर अपना व्रत खोल लिया ! इस तरह इस कहानी के अनुसार चलनी के माध्यम से जो देखा गया था वह तो नकली चाँद था फिर स्त्रियों का अपनी असली पूजा में चलनी के पीछे से चाँद देखने का क्या औचित्य है ? क्या हम गलत परम्परा को खाद पानी नहीं डाल रहे हैं या फिर हम इस परम्परा को सिर्फ इसलिए मानने मनाने लगे हैं क्योंकि फिल्मों में और धारावाहिकों में बड़े ही भव्य तरीके से इस परम्परा की स्थापित किया जाने लगा है जहाँ सजधज कर और चित्ताकर्षक अदाओं के साथ नायिका आसमान के चाँद के बाद नायक का चेहरा चलनी में देखती है और नायक अत्यंत रूमानी तरीके से पानी पिला कर नायिका का व्रत खुलवाता है ! मुझे याद है अपने मायके ससुराल में किसीको भी मैंने चलनी के माध्यम से चन्द्र देव के दर्शन करते हुए नहीं देखा ! न ही बाज़ार में इस तरह से सजी हुई चलनियाँ मिला करती थीं ! बाज़ारवाद की परम्पराएँ तो केवल हानि लाभ के सिद्धांतों से परिचालित होती हैं लेकिन धार्मिक विश्वास और आस्थाएं जिन रीति रिवाजों से पालित पोषित होते हैं क्या उनका तर्क की कसौटी पर खरा उतरना आवश्यक नहीं ? अधिकाँश महिलायें अब चलनी के माध्यम से चाँद क्यों देखने लगी हैं मैं इसका उत्तर जानना चाहती हूँ ! आशा है मेरी शंका का समाधान कर मेरा ज्ञानवर्धन आप में से कोई न कोई अवश्य करेगा !
सभी बहनों को करवाचौथ की हार्दिक शुभकामनायें एवं बधाई !
साधना वैद
बहुत सुन्दर लेख ।
ReplyDeleteहार्दिक धन्यवाद मीना जी ! आभार आपका !
Deleteजी दी तार्किक लेख..।
ReplyDeleteहमारे यहाँ करवा चौथ नहीं होता है इसलिए जानकारी नहीं खास पर आपका यह लेख बहुत प्रभावशाली है।
हृदय से आपका धन्यवाद श्वेता जी ! इस गुत्थी को मैं सुलझा नहीं पा रही हूँ इसीलिये अपने प्रबुद्ध पाठकों के सम्मुख रखा है यह प्रश्न कि कोई इसका समाधान बता सके !
Deleteआपकी इस प्रस्तुति का लिंक 17.10.19 को चर्चा मंच पर चर्चा - 3491 में दिया जाएगा । आपकी उपस्थिति इस मंच की शोभा बढ़ाएगी ।
ReplyDeleteधन्यवाद
दिलबागसिंह विर्क
करवा चौथ की शुभकामनाओं सहित ।
ReplyDeleteहार्दिक धन्यवाद पुरुषोत्तम जी ! आभार आपका !
Deleteसाधना जी,
ReplyDeleteकरवाचौथ का जो व्रत हमारी माँ करती थीं, वो उनका घरेलू मामला होता था और उसकी खबर या तो हमारी दादी (उनकी सास) को नेग और पकवान मिलने की वजह से होती थी या फिर हमारे पिताजी को अपने चरण छुए जाने से होती थी.
भला हो एकता कपूर के सीरियल्स का और 'बागवान' जैसी फ़िल्मों का कि आज करवाचौथ एक राष्ट्रीय पर्व हो गया है.
हमारे जैन समाज में करवाचौथ मनाने का चलन कम है. मेरी श्रीमती जी इस व्रत का पालन नहीं करती हैं और मैं आदतन उनको उपहार देने से बच जाता हूँ.
उपहार देने की झंझट से आप खूब बचे गोपेश जी ! हार्दिक बधाई ! लेकिन उपहार देना कोई बाध्यता है ऐसा भी नहीं है ! आप बिलकुल सही कह रहे हैं हमारे मायके और ससुराल में भी यह पर्व नितांत वैयक्तिक और घरेलू ही हुआ करता था जिसमें परिवार के सदस्य ही भाग लिया करते थे लेकिन आपने सही आकलन किया कि अब इसने राष्ट्र्रे पर्व का दर्ज़ा हासिल कर लिया है ! यह और बात है कि पहले इसमें विशुद्ध भक्ति आस्था और श्रद्धा हुआ करती थी अब आडम्बर और चकाचौंध ने अधिक स्थान घेर लिया है ! हार्दिक धन्यवाद आपका !
Deleteआपका ह्रदय से बहुत बहुत धन्यवाद एवं आभार यशोदा जी ! सप्रेम वन्दे !
ReplyDeleteआपकी लिखी रचना ब्लॉग "पांच लिंकों का आनन्द" में गुरुवार 17 अक्टूबर 2019 को साझा की गयी है......... पाँच लिंकों का आनन्द पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!
ReplyDeleteआपका ह्रदय से बहुत बहुत धन्यवाद एवं आभार रवीन्द्र जी ! धन्यवाद ज्ञापन में विलम्ब के लिए क्षमाप्रार्थी हूँ ! कल ज़रा भी समय नहीं मिल सका ! एक बार पुन: आपका आभार ! सादर वन्दे !
Deleteसुन्दर लेख|
ReplyDeleteकरवा चौथ की शुभ कामनाएं |
हार्दिक धन्यवाद जी !
Deleteबहुत प्रभावशाली लेख है।
ReplyDeleteहार्दिक धन्यवाद संजय ! आभार आपका !
Deleteमैं भी उत्सुक थी इसके बारे में जानने के लिए इसलिए बार बार कमेंट बॉक्स देखती रही यहां... परन्तु अभी तक तो....
ReplyDeleteबहुत सुन्दर लेख
करवाचौथ की हार्दिक शुभकामनाएं आपको।
वही मैं कहना चाह रही थी सुधा जी ! हमारे यहाँ लकीर पीटने की परम्परा चल पडी है ! कोई अभी तक नहीं बता सका है कि इस प्रथा के पालन के पीछे क्या तर्क या औचित्य है ! मैं स्वयं अपने ज्ञान में वृद्धि करना चाहती हूँ लेकिन कोई ज्ञानी मशाल हाथ में लेकर राह दिखाने नहीं आया !
Deleteप्रभावशाली लेख सही जानकारी के साथ..
ReplyDeleteएक भावनात्मक पर्व बाजार और दिखावटीपन में सब बहे जा रहे हैं.. जबकि हर नियम,के पिछे कोई न कोई वजह है।
हार्दिक धन्यवाद पम्मी जी ! आभार आपका मेरी अकुलाहट को समझने के लिये ! आपको कहीं इसका तर्कपूर्ण समाधान मिले तो मुझे अवश्य बताइयेगा !
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