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Sunday, November 22, 2009

गवाही

आज मैंने जागी आँखों
एक भयावह दु:स्वप्न देखा है !
बोलो क्या तुम मेरे उस कटु अनुभव को बाँट सकोगे ?
पिघलते सीसे सी उस व्यथा कथा की
तेज़ धार को काट सकोगे ?

मैने यथार्थ के निर्मम बीहड़ में
नंगे पैरों दौड़ते लहुलुहान
उसके दुधमुँहे सुकुमार सपनों को देखा है ।

मैंने निराशा के अंधड़ में यहाँ वहाँ उड़ते
उसकी योजनाओं के डाल से टूटे हुए
सूखे पत्तों को देखा है ।

मैंने दर्द के दलदल में आकण्ठ डूबी
उसकी महत्वाकांक्षाओं की
घायल नियति को देखा है ।

मैंने कड़वाहट के तपते मरुथल में
जिजीविषा की मरीचिका के पीछे भटकते
उसकी अभिलाषाओं के जीवित शव को देखा है ।

मैने नफरत के सैलाब में
अपने मूल्यों की गहरी जड़ों से विच्छिन्न हो
उसे क्षुद्र तिनके की तरह बहते देखा है ।

मैंने उसे संशय और असमंजस के
दोराहे पर खड़े हो अपनी अंतरात्मा के
विक्रय पत्र पर हस्ताक्षर करते देखा है ।

मैंने कुण्ठाओं के अवगुण्ठन में लिपटी
सहमती झिझकती सिसकती
उसकी मूर्छित चेतना को देखा है ।

मैंने ज़रूरतों के लौहद्वार पर दस्तक देती
उसकी बिकी हुई अंतरात्मा का उसीके हाथों
पल-पल तिल-तिल मारा जाना देखा है ।

मैंने आदर्शों के चटके दर्पण में
उसके टूटे हुए व्यक्तित्व का
दरका हुआ प्रतिबिम्ब देखा है ।

मैने आज एक मसीहा को
मूल्यों से निर्धन इस समाज की बलिवेदी पर
अपनी मर्यादा की बलि देते देखा है ।
अपनी आत्मा का खून करते देखा है ।

क्या मेरी यह चश्मदीद गवाही
समाज की अन्धी न्यायव्यवस्था के
बहरे नियंताओं के कानों में जा सकेगी ?

क्या मेरी यह गवाही
उस बेबस लाचार मजबूर इंसान की झोली में
इंसाफ के चन्द टुकड़े डलवा सकेगी ?


साधना वैद

3 comments :

  1. देश की न्याय व्यवस्था पर सही चोट....
    अजय कुमार झा

    word verification हटा दें..तो ठीक रहेगा

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  2. साधना जी बहुत अच्छी कविता है अजय जी ने सही कहा है वर्ड वेरिफिकेशन से टोप्पणी देने मे मुश्किल होती है शुभकामनायें

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