Followers

Tuesday, September 6, 2011

जाने क्यों







जाने क्यों आज भी

भागता है मन उन

परछाँइयों के पीछे

जो वर्षों पहले उँगली छुड़ा कर

मुझसे इतनी दूर जा चुकी हैं

कि अब ना उनका मुझ तक

लौटना मुमकिन है

ना ही मेरा उन तक

पहुँचना सम्भव है !

जाने क्यों तरसते हैं कान

सदियों पहले हवाओं में

विलीन हो चुकी उस आवाज़ की

प्रतिध्वनि को सुनने के लिये

जो पता नहीं कैसे भूल से

एक बार मेरे नाम को

शायद अनजाने में ही

उच्चारित कर गयी थी और

अब काल के गह्वर में

कहीं डूब कर रह गयी है !

जाने क्यों युगों पहले

अपनी हथेली पर गिरे

उस एक आँसू की नमी से

मैं अपने मन की बगिया के

मुरझाये पौधे को सींचने की

कोशश में आज भी जुटी हूँ

जो कदाचित

किसी और की पीड़ा से

द्रवित होकर मेरी हथेली पर

छलक पड़ा था और

जिसकी उष्मा ने

उस एक पल में

मुझे समूचा ही

पिघला दिया था !

जाने क्यों आज तक

समझ नहीं पाई कि

आसमान में उड़ने वाले

स्वच्छंद पंछी कभी

पिंजरे में क़ैद होकर

रहना नहीं जानते,

कि पर्वत से उतरने वाली धारा

कभी अपनी दिशा बदल

पलट कर वापिस

पर्वत पर नहीं चढ़ती,

कि शाख से टूट कर

विच्छिन्न हुआ फूल

कभी लौट कर दोबारा

शाख पर नहीं खिलता !

साधना वैद

24 comments :

  1. जाने क्यों का जवाब ज़रा मुश्किल है क्योंकि कुछ चीज़ें हमारे हिसाब से नहीं होती और कभी कभी असंभव भी होता है।

    सादर
    ------
    वो स्कूल के दिन और मेरी टीचर्स

    ReplyDelete
  2. man ki uljhan hi yahi hai ...jane kyon .sarthak prastuti .aabhar

    BHARTIY NARI

    ReplyDelete
  3. अक्‍सर यह सवाल ...सामने आ खड़ा होता है ... ।

    ReplyDelete
  4. बहुत अच्छी रचना...बधाई...

    नीरज

    ReplyDelete
  5. बहुत सुंदर भावपूर्ण प्रस्तुति...

    ReplyDelete
  6. शाख से टूट कर
    विच्छिन्न हुआ फूल
    कभी लौट कर दोबारा
    शाख पर नहीं खिलता !


    बेहद मार्मिक अभिव्यक्ति

    ReplyDelete
  7. शाख से टूट कर
    विच्छिन्न हुआ फूल
    कभी लौट कर दोबारा
    शाख पर नहीं खिलता.

    बहुत सुंदर भावपूर्ण प्रस्तुति.

    ReplyDelete
  8. कुछ अनसुलझे प्रश्न तलाश कर रही है आपकी कविता...
    मन की अस्थिरता बहुत सुन्दरता से बयां कर रही है ...

    ReplyDelete
  9. अनुत्तरित प्रश्न करती भावपूर्ण प्रस्तुति के लिए आभार आपका.

    ReplyDelete
  10. किसी और की पीड़ा से

    द्रवित होकर मेरी हथेली पर

    छलक पड़ा था और

    जिसकी उष्मा ने

    उस एक पल में

    मुझे समूचा ही

    पिघला दिया था

    बहुत संवेदनशील पंक्तियाँ हैं ... न जाने क्यों होता है ऐसा ..जो नहीं होता पास वही सब स्मृति में कैद रहता है ... बहुत भावनाप्रवण रचना

    ReplyDelete
  11. कुछ प्रश्न अनुत्तरित ही ठीक ...क्योंकि एक ही जवाब सबके लिए सही नहीं हो सकता ...
    सुन्दर कविता!

    ReplyDelete
  12. बहत भावपूर्ण और मन को छूती रचना |
    " सोचने की कोशिश में आज भी जुटी हूँ जो कदाचित किसी और की पीड़ा से द्रवित हो कर मेरी हथेली पर छलक पड़ा था "
    बहुत खूब लिखा है
    आशा

    ReplyDelete
  13. सुन्दर प्रस्तुती....

    ReplyDelete
  14. क्या बात है बहुत सुन्दर भावप्रद रचना। शुभकामनाएं साधना जी।

    ReplyDelete
  15. बहुत अच्छी रचना| धन्यवाद|

    ReplyDelete
  16. apki rachna ka ek ek shabd bite kal ki kahani kah raha hai...lekin me poochhti hun kya bite kal ko yad kar kar dukhi hona kya sahi hai? kyu nahi ham log in yado ki zanziro ko tod ka khush-numa mahol apne liye taiyar karte ya kyu nahi khud us mahol me ramne ki koshish karte.....kya hame dukh itne bhane lage hain?

    jis insan ka ek ashk dusre ki peeda se dravit ho tumhari hatheli par gira vo itna nishthur bhi hai ki us hatheli me kaid hue apke aansuo ki nami nahi samajh paya to aisi sushkta me khud ka pighalna bemani lagta hai. sach kaha aapne parwat se utri dhara kaise lautegi ...shakh se toota fool kaise dubara khilega to khud hi bataiye bita waqt kaise lautega ?

    sunder marmik rachna.

    ReplyDelete
  17. बहुत अच्छी रचना.

    ReplyDelete
  18. जाने क्यूँ ...इस सवाल को अनुत्तरित ही रहने दें क्यूंकि कुछ चीज़ों पर बस नहीं चलता...अत्यंत संवेदनशील रचना

    ReplyDelete
  19. शाख से टूट कर
    विच्छिन्न हुआ फूल
    कभी लौट कर दोबारा
    शाख पर नहीं खिलता.... बहुत सुंदर भावपूर्ण प्रस्तुति...

    ReplyDelete
  20. कुछ प्रश्न अनुत्तरित ही रहते हैं …………बेहतरीन रचना।

    ReplyDelete
  21. शायद इस कविता के हम कुछ आत्ममंथन करें और अपनी कुछ गुत्थियाँ सुलझा लें.

    ReplyDelete
  22. सार्थक एवं भावपूर्ण

    ReplyDelete