दहलीज
के बाहर ठिठकी
ये
खट्टी मीठी तीखी यादें
गाहे
बे गाहे
मेरे
अंतर्मन के द्वार पर
जब
तब आ जाती हैं और
कभी
मनुहार कर तो
कभी
खीझ कर ,
कभी
मिन्नतें कर तो
कभी
झगड़ कर ,
कभी
खुशामद कर तो
कभी
धौंस जमा कर ,
कभी
बहस कर तो
कभी
हक जता कर ,
कभी
रोकर तो
कभी
उलाहने देकर
ये
यादें मेरे मन के द्वार पर
धरना
देकर बैठ जाती हैं !
अंतत:
किसी दुर्बल पल में
अपनी
ही मरणासन्न सी लगती
जिजीविषा
की तथाकथित
अंतिम
इच्छा को सम्मान
देने
के लिये विवश होकर
मुझे
इनके दुराग्रह के आगे
हथियार
डालने ही पड़ते हैं
और
मैं दरवाज़ा खोल देती हूँ !
और
लो
सूखाग्रस्त
सी चटकती दरकती
मेरे
मन की मरुभूमि में
ये
यादें अमृततुल्य बाढ़ की तरह
चारों
ओर से उमड़ घुमड़
मन
की हर एक शिरा में
संजीवनी
का संचार कर
इसे
फिर से जिला देती हैं
और
एक बार फिर
शुरू
हो जाती है जंग
इन
यादों से जिनके बिना
ना
तो रहा जाता है
और
ना ही जिन्हें
सहा
जाता है !
साधना
वैद
चित्र - गूगल से साभार
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