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Monday, January 27, 2014

फूल खिल सकें पत्थर पर भी


एकल ही निर्जन राहों पर चलते रहना है ,
तू संग है इस भ्रम से खुद को छलते रहना है !

बाहों में आकाश, नयन में सागर भर कर
दुग्ध धवल शीतल रातों में जलते रहना है !

बालारुण की किरणों की कच्ची कलमों से
उजली कविता के छंदों को रचते रहना है ! 

कितनी भी हो धुँध घना हो कितना कोहरा
लक्ष्य साध कर बाण हाथ ले चलते रहना है !

पात-पात पर संचित हिम से ओस कणों से
अंतर के ज़ख्मों पर मरहम रखते रहना है !

फूल खिल सकें इस दुनिया में पत्थर पर भी
हृदय वाष्प से हर पत्थर नम करते रहना है ! 


साधना वैद

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