वेदना की राह पर
बेचैन मैं हर पल घड़ी ,
तुम सदा थे साथ फिर
क्यों आज मैं एकल खड़ी !
थाम कर उँगली तुम्हारी
एक भोली आस पर ,
चल पड़ी सागर किनारे
एक अनबुझ प्यास धर !
मैं तो अमृत का कलश
लेकर चली थी साथ पर ,
फिर भला क्यों रह गये
यूँ चिर तृषित मेरे अधर !
मैं झुलस कर रह गयी
रिश्ते बचाने के लिये ,
मैं बिखर कर रह गयी
सपने सजाने के लिये !
रात का अंतिम पहर
अब अस्त होने को चला ,
पर दुखों की राह का
कब अंत होता है भला !
चल रही हूँ रात दिन
पर राह यह थमती नहीं ,
कल जहाँ थी आज भी
मैं देखती खुद को वहीं !
थक चुकी हूँ आज इतना
और चल सकती नहीं ,
मंजिलों की राह पर
अब पैर मुड़ सकते नहीं
कल उठूँगी, फिर चलूँगी
पार तो जाना ही है ,
साथ हो कोई, न कोई
इष्ट तो पाना ही है !
साधना वैद
बेहतरीन रचना...
ReplyDeleteसादर नमन..
ओह , गहन वेदना भारी रचना ।
ReplyDeleteहृदय से आपका धन्यवाद दिग्विजय जी ! आभार आपका !
ReplyDeleteओहो ! धन्य भाग्य संगीता जी ! कहाँ खो गयीं थीं आप ? कितना अच्छा लग रहा है आपको देख कर ! दिल से बहुत बहुत धन्यवाद एवं आभार आपका ! अब मत जाइयेगा दूर ! आपकी प्रतिक्रिया सदैव उत्साहवर्धन करती है !
ReplyDeleteअच्छी लगी कविता....
ReplyDeletebahut badhiya
ReplyDeleteजी नमस्ते,
ReplyDeleteआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल रविवार (28-04-2019) को " गणित के जादूगर - श्रीनिवास रामानुजन की ९९ वीं पुण्यतिथि " (चर्चा अंक-3319) पर भी होगी।
--
चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट अक्सर नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
....
अनीता सैनी
गहरे भाव के साथ.. बहुत खूबसूरत।
ReplyDeleteहमेशा की तरह बहुत सुन्दर !
ReplyDeleteहार्दिक धन्यवाद संजय !
ReplyDeleteहृदय से धन्यवाद केडिया जी !
ReplyDeleteआपका हृदय से बहुत बहुत धन्यवाद एवं आभार कुलदीप जी ! सस्नेह वन्दे !
ReplyDeleteआपका तहे दिल से बहुत बहुत शुक्रिया एवं आभार अनीता जी ! सप्रेम वन्दे !
ReplyDeleteहृदय से धन्यवाद पम्मी जी ! रचना आपको अच्छी लगी मन प्रसन्न हुआ !
ReplyDeleteहार्दिक धन्यवाद गोपेश जी ! आभार !
ReplyDeleteमन की वेदना को सहेजते नारी मन की भावस्पर्शी रचना आदरणीय साधना जी | बहुत ही मार्मिक चित्र उभरा है रचना में | सस्नेह शुभकामनायें |
ReplyDeleteजी नमस्ते,
ReplyDeleteआपकी लिखी रचना हमारे सोमवारीय विशेषांक
२९ अप्रैल २०१९ के लिए साझा की गयी है
पांच लिंकों का आनंद पर...
आप भी सादर आमंत्रित हैं...धन्यवाद।
हार्दिक धन्यवाद रेनू जी!बहुत बहुत आभार आपका!
ReplyDeleteआपका हृदय से बहुत बहुत धन्यवाद एवं आभार श्वेता जी! सप्रेम वन्दे !
ReplyDelete
ReplyDeleteमैं तो अमृत का कलश
लेकर चली थी साथ पर ,
फिर भला क्यों रह गये
यूँ चिर तृषित मेरे अधर !
वेदना की मार्मिक अभिव्यक्ति दी। आपकी लेखनी से अभिव्यक्त होकर वेदना भी गीत बन जाती है। सादर।
रात का अंतिम पहर
ReplyDeleteअब अस्त होने को चला ,
पर दुखों की राह का
कब अंत होता है भला !
वाह बहुत ही बेहतरीन रचना
इष्ट तो पाना ही है ...
ReplyDeleteमन में संवेदनाएं जिन्दा रहती हैं तो इन्सान इश्वर के करीब तो वैसे ही हो जाता है ...
सुन्दर भावपूर्ण रचना है ...
हार्दिक धन्यवाद मीना जी ! आभार आपका !
ReplyDeleteहृदय से आभार आपका अभिलाषा जी !
ReplyDeleteतहे दिल से बहुत बहुत शुक्रिया नासवा जी ! आपको रचना अच्छी लगी मेरा श्रम सफल हुआ ! आभार आपका !
ReplyDeleteरात का अंतिम पहर
ReplyDeleteअब अस्त होने को चला ,
पर दुखों की राह का
कब अंत होता है भला !
बेहतरीन लेखन हेतु साधुवाद आदरणीया ।
आपका बहुत बहुत धन्यवाद सिन्हा साहेब ! हृदय से आभार !
ReplyDelete