सारी ज़िंदगी
मरम्मत करती रही हूँ
फटे कपड़ों की
कभी बखिया करके
तो कभी पैबंद लगा के
कभी तुरप के
तो कभी छेदों को रफू
करके !
धूप की तेज़ रोशनी और
साफ़ नज़र की कितनी
ज़रुरत होती थी उन
दिनों
सुई में धागा पिरोने
के लिए
और सफाई से सीने के
लिए !
मरम्मत तो अब भी
करती ही रहती हूँ
कभी रिश्तों की चादर
में
पड़े हुए छेदों को
रफू कर जोड़ने के लिए
तो कभी ज़िंदगी के
उधड़ते जा रहे लम्हों
को
तुरपने के लिए
कभी विदीर्ण मन की
चूनर पर करीने से
पैबंद लगाने के लिए
तो कभी भावनाओं के
जीर्ण शीर्ण लिबास को
बखिया लगा कर
सिलने के लिए !
बस एक सुकून है कि
इस ढलती उम्र में
यह काम रात के
निविड़ अन्धकार में ही
बड़े आराम से हो जाता
है
इसके लिए मुझे
किसी सुई धागे और
तेज़ रोशनी की
ज़रुरत नहीं होती !
साधना वैद
रिश्तों को रफू करना कोई आसान तो नहीं । वो भी आप भावनाओं से अंधेरे में अकेले ही उधेड़ बुन कर रफुगिरी करती हैं । सुंदर अभिव्यक्ति ।
ReplyDeleteआपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल बुधवार (01-05-2019) को "संस्कारों का गहना" (चर्चा अंक-3322) पर भी होगी।
ReplyDelete--
सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
ब्लॉग बुलेटिन की दिनांक 30/04/2019 की बुलेटिन, " राष्ट्रीय बीमारी का राष्ट्रीय उपचार - ब्लॉग बुलेटिन “ , में आप की पोस्ट को भी शामिल किया गया है ... सादर आभार !
ReplyDeleteबेहतरीन रचना आदरणीय दी जी
ReplyDeleteसादर
बहुत शानदार रचना है |
ReplyDeleteबेहतरीन रचना ,सादर नमस्कार
ReplyDeleteआपका हृदय से बहुत बहुत धन्यवाद एवं आभार शास्त्रीजी!
ReplyDeleteआपका तहे दिल से बहुत बहुत शुक्रिया शिवम् जी! हार्दिक आभार !
ReplyDeleteहार्दिक धन्यवाद अनीता जी!
ReplyDeleteहार्दिक धन्यवाद जीजी!
ReplyDeleteदिल से शुक्रिया सु-मन जी !
ReplyDeleteहार्दिक धन्यवाद कामिनी जी!
ReplyDeleteहृदय से आपका बहुत बहुत धन्यवाद एवं आभार संगीता जी !
ReplyDeleteभावनाओ को रफू करने के लिये कब रोशनी और सुई-धागे की जरूरत पड्ती है भला
ReplyDeleteहार्दिक धन्यवाद वर्मा जी! आभार आपका !
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