सचमुच तुम केवल पत्थर हो !
इतनी सारी धन दौलत पर बैठे हो अधिकार किये ,
निर्धन जनता सहती जाती हर दुःख विपदा अधर सिये ,
कैसे सह लेते हो अपने भक्तों की इतनी पीड़ा ,
यह सब है निर्मम सच्चाई नहीं कोई कंदुक क्रीड़ा !
देख नहीं पाते यदि यह सब कैसे भक्तों के हितकर हो !
सचमुच तुम केवल पत्थर हो !
कैसे प्रतिनिधि भेजे तुमने भक्तों की सेवा करने ,
जो बन बैठे खुद ही 'भगवन', छोड़ा भक्तों को मरने ,
काम, क्रोध, मद, लोभ से जिनकी छूट न पायी कभी लगन ,
रहे देखते अविचल जग को, स्वयं रास में रहे मगन ,
क्या सचमुच तुम ऐसे ढोंगी साधू संतों के अनुचर हो !
सचमुच तुम केवल पत्थर हो !
सोने चाँदी के आसन पर सदा विराजे रहते तुम ,
हीरे, मोती, रत्न, नगों से सदा सुसज्जित रहते तुम ,
मनों भोग चढ़ता है निश दिन क्षुधित जनों के पैसों से ,
जिसे चखा ना तुमने कण भर जुटा भक्त की जेबों से ,
काला, श्वेत बहुत धन जाने, तुम बहुरंगी धन के घर हो !
सचमुच तुम केवल पत्थर हो !
बच्चों को भूखा रख दुखिया माँ मंदिर में अर्चन करती ,
विवश विकलता एक पिता की तेरी देहरी पर सिर धरती ,
क्यों दुःख नहीं बाँटते उनका, बोलो तुम किसका भय है ,
वार नहीं क्यों देते यह धन उर अंतर जो करुण, सदय है ,
लेकिन ऐसा तभी करोगे मन पर पीड़ा से कातर हो !
सचमुच तुम केवल पत्थर हो !
साधना वैद
इतनी सारी धन दौलत पर बैठे हो अधिकार किये ,
निर्धन जनता सहती जाती हर दुःख विपदा अधर सिये ,
कैसे सह लेते हो अपने भक्तों की इतनी पीड़ा ,
यह सब है निर्मम सच्चाई नहीं कोई कंदुक क्रीड़ा !
देख नहीं पाते यदि यह सब कैसे भक्तों के हितकर हो !
सचमुच तुम केवल पत्थर हो !
कैसे प्रतिनिधि भेजे तुमने भक्तों की सेवा करने ,
जो बन बैठे खुद ही 'भगवन', छोड़ा भक्तों को मरने ,
काम, क्रोध, मद, लोभ से जिनकी छूट न पायी कभी लगन ,
रहे देखते अविचल जग को, स्वयं रास में रहे मगन ,
क्या सचमुच तुम ऐसे ढोंगी साधू संतों के अनुचर हो !
सचमुच तुम केवल पत्थर हो !
सोने चाँदी के आसन पर सदा विराजे रहते तुम ,
हीरे, मोती, रत्न, नगों से सदा सुसज्जित रहते तुम ,
मनों भोग चढ़ता है निश दिन क्षुधित जनों के पैसों से ,
जिसे चखा ना तुमने कण भर जुटा भक्त की जेबों से ,
काला, श्वेत बहुत धन जाने, तुम बहुरंगी धन के घर हो !
सचमुच तुम केवल पत्थर हो !
बच्चों को भूखा रख दुखिया माँ मंदिर में अर्चन करती ,
विवश विकलता एक पिता की तेरी देहरी पर सिर धरती ,
क्यों दुःख नहीं बाँटते उनका, बोलो तुम किसका भय है ,
वार नहीं क्यों देते यह धन उर अंतर जो करुण, सदय है ,
लेकिन ऐसा तभी करोगे मन पर पीड़ा से कातर हो !
सचमुच तुम केवल पत्थर हो !
साधना वैद
आस-पास के हालात देख तो सचमुच मन कह उठता है...
ReplyDeleteसचमुच तुम केवल पत्थर हो !
प्रभु की लीला प्रभु ही जाने.
ReplyDeletebahut sunder shabdo se shobha mandit kiya hai. apke shabdo ka hi asar hai ki iska seedha asar ho raha hai har dil par.
ReplyDeletebahut bahut sarthak lekhan.
मन की संवेदनाओं को सार्थक शब्द दिए हैं ... लोगों की आस्था ने सच ही भगवान को पत्थर का बना दिया है ... भगवान ने तो नहीं चाह होगा यह धन ..हीरे , मोती माणिक .. यह हमारा विश्वास है जो पत्थर के आगे सिर झुकाता है ...
ReplyDeleteबहुत अच्छी रचना ..सोचने पर विवश करती हुई ... मंदिरों का पैसा सरकार के संरक्षण में जाने पर क्या सुरक्षित रह जायेगा ? यह गंभीर प्रश्न है ..
लेकिन ऐसा तभी करोगे मन पर पीड़ा से कातर हो !
ReplyDeleteसचमुच तुम केवल पत्थर हो !
सत्य को बहुत सुन्दर भावों और शब्दों से चित्रित किया है..हरेक पंक्ति अंतस को छू जाती है..आज के हालात देख कर तो सच में कहना पडता है सचमुच तुम केवल पत्थर हो. एक उत्कृष्ट प्रस्तुति..आभार
इश्वर क्या करे ये तो भक्तो का किया है..??
ReplyDelete"जो बन बैठे खुद ही भगवान ---
ReplyDeleteभक्तों को मरने "
अच्छी पोस्ट के लिए बधाई
आशा
बहुत सार्थक रचना है ....
ReplyDeleteजब मंदिरों में एकत्रित पूँजी मिलती है ...यही प्रश्न उठाते हैं मन में ....!!
बहुत सुंदर अभिव्यक्ति ..
बेजोड़ रचना है आपकी साधना जी...बधाई स्वीकारें
ReplyDeleteनीरज
आपकी किसी नयी -पुरानी पोस्ट की हल चल कल 07-07- 2011 को यहाँ भी है
ReplyDeleteनयी पुरानी हल चल में आज- प्रतीक्षारत नयनो में आशा अथाह है -
मौजूदा दौर में हमें हर वक्त दोराहे पर खड़ा किया जाने लगा है| हमारे 'हम' से जुड़ीं कई सारी बुराइयाँ चुन चुन कर हमारे समक्ष लाई जा रही हैं| यह गलत भी नहीं है, हर बार - हर जगह|
ReplyDeleteसाथ ही ये बात भी मन मस्तिष्क को बार बार मजबूर करती है सोचने के लिए - शेष दुनिया में कितनी अच्छाइयाँ शेष हैं????????????????
मुझे पूर्ण विश्वास है, बाकी मित्र भी मेरी तरह ही अपनी अपनी टिप्पणी चिपका के चल देंगे|
बेहतरीन!
ReplyDeleteसादर
सचमुच प्राणी ..आतंरिक जगत जहां प्रभु का निवास है वहाँ से विमुख होकर बाह्य जगत के भोग विलास की वस्तुओं का संग्रहकर्ता बन बैठा है ..ऐसे संसार में भावुक मन सचमुच ये कह उठता है ..सचमुच तुम पत्थर हो...
ReplyDeleteबहुत ही भावुक प्रस्तुति...सादर अभिन्दन !!!
बहुत अच्छी रचना....
ReplyDeleteभगवान उवाच -
ReplyDeleteहे देवी !
दुखी बहुत हूँ मैं भी
देख-देख यह मानव लीला
मैं तो सदा भाव का भूखा
जाने क्यों ये कनक घटों में
कनक चढ़ाया करते हैं.
जिस दिन पहला कनक चढ़ा था
तब से
निर्वासित जीवन जीता हूँ
मैं पीड़ा में......
मैं करुणा में ......
और अकिंचन के उर में
तब भी था
अब भी हूँ
मैं सदियों से
मंदिर के बाहर
भिक्षु पंक्ति में बैठा हूँ
मुझे इसलिए मंदिरों और मूर्तियों में उतनी आस्था नहीं है... इश्वर मन में है और वहीँ रहेगा.. ऐसे बड़े-बड़े प्रांगणों में वो नहीं मिलते.. वहां तो खजाने ही मिलते हैं..
ReplyDeleteपरवरिश पर आपके विचारों का इंतज़ार है..
आभार
ना जाने कौन है दोषी, मानव या भगवान ? आसपास जितना देखा, उसमें अच्छे और भले लोगों की तकदीर में दुःख और दुराचारियों की तकदीर में सुख, यही पाया।
ReplyDeleteईश्वर की सत्ता और उसके न्याय में पूर्ण विश्वास होते हुए भी मन कभी कभी विद्रोही होकर यह प्रश्न कर ही उठता है - क्या तुम सचमुच पत्थर हो ?
हाँ ,दुःख दर्द से व्यथित मन हार कर भगवान से ही शिकवा करेगा न ,ये भी तो भक्ति का एक रूप ही हैं ,सादर नमस्कार दी
ReplyDeleteआपका हृदय से बहुत बहुत धन्यवाद एवं आभार यशोदा जी मेरी इस पुरानी रचना को आज के हमकदम के समकक्ष लाने के लिए ! इन दिनों व्यस्तता अपने चरम पर है ! सप्रेम वन्दे !
ReplyDeleteविकल मन की आर्त पुकार है मीना जी ! आपका बहुत बहुत धन्यवाद एवं आभार !
ReplyDeleteहार्दिक धन्यवाद एवं आभार आपका कामिनी जी ! निराशा से भरे मन का प्रलाप है यह जब उसके आराध्य उसके हर दुःख हर पीड़ा से आँखें मूँद लेते हैं और निष्ठुर पाषाण की तरह मंदिर में विराजे रहते हैं !
ReplyDeleteलेकिन ऐसा तभी करोगे मन पर पीड़ा से कातर हो
ReplyDeleteसचमुच तुम केवल पत्थर हो !
अच्छे लोग जब को भगवान की परीक्षा समझकर आजीवन दुख उठाते हैं तब मन यही कहता है
बहुत ही सुन्दर सार्थक रचना...
वाह!!!