हर जीत तुम्हारी हो ज़रूरी तो नहीं ,
हर हार हमारी हो ज़रूरी तो नहीं !
सच है तुम्हें सब मानते हैं रौनके महफ़िल ,
हर बात तुम्हारी हो ज़रूरी तो नहीं !
जो रात की तारीकियाँ लिख दीं हमारे नाम ,
हर सुबह पे भारी हों ज़रूरी तो नहीं !
बाँधो न कायदों की बंदिशों में तुम हमें ,
हर साँस तुम्हारी हो ज़रूरी तो नहीं !
तुम ख़्वाब में यूँ तो बसे ही रहते हो ,
नींदें भी तुम्हारी हों ज़रूरी तो नहीं !
जज़्बात ओ खयालात पर तो हावी हो ,
गज़लें भी तुम्हारी हों ज़रूरी तो नहीं !
दिल की ज़मीं पे गूँजते अल्फाजों की ,
तहरीर तुम्हारी हों ज़रूरी तो नहीं !
माना की हर एक खेल में माहिर बहुत हो तुम ,
हर मात हमारी हो ज़रूरी तो नहीं !
साधना वैद
हर जीत तुम्हारी हो ज़रूरी तो नहीं ,
ReplyDeleteहर हार हमारी हो ज़रूरी तो नहीं !
........
माना की हर एक खेल में माहिर बहुत हो तुम ,
हर मात हमारी हो ज़रूरी तो नहीं !
bahut hi badhiyaa
साधना जी इस अद्भुत रचना के लिए बधाई स्वीकारें...आपकी रचना से जगजीत सिंह जी की गई ग़ज़ल "उम्र जलवों में बसर हो,ये जरूरी तो नहीं, हर शबे ग़म की सहर हो ये जरूरी तो नहीं..." याद आ गयी...
ReplyDeleteनीरज
तुम ख़्वाब में यूँ तो बसे ही रहते हो ,
ReplyDeleteनींदें भी तुम्हारी हों ज़रूरी तो नहीं !
क्या बात है
आज की गज़ल में कौन स शेर छोडूँ और कौन सा पकडूँ .. बहुत खूब कही है गज़ल ..
ReplyDeleteजो रात की तारीकियाँ लिख दीं हमारे नाम ,
हर सुबह पे भारी हों ज़रूरी तो नहीं !
बाँधो न कायदों की बंदिशों में तुम हमें ,
हर साँस तुम्हारी हो ज़रूरी तो नहीं !
माना की हर एक खेल में माहिर बहुत हो तुम ,
हर मात हमारी हो ज़रूरी तो नहीं !
हर शेर सीधे दिल से निकला हुआ ..
बाँधो न कायदों की बंदिशों में तुम हमें ,
ReplyDeleteहर साँस तुम्हारी हो ज़रूरी तो नहीं !..
लाज़वाब गज़ल..हरेक शेर एक सार्थक प्रश्न उठाता हुआ..बहुत खूब ! आभार
बढ़िया रचना है साधना जी.
ReplyDeleteहार जीत अस्थायी अनुभूतियाँ हैं..
ReplyDeleteइनमें स्थायित्व कैसा ढूँढना??
वाह ! वाह ! वाह !
ReplyDeleteआज तो इस गज़ल को पड कर क्लैप करनें को दिल कर रहा है. बहुत उम्दा गज़ल.
बाँधो न कायदों की बंदिशों में तुम हमें ,
ReplyDeleteहर साँस तुम्हारी हो ज़रूरी तो नहीं !
कमाल है!! हर शे’र लाजवाब! पूरी ग़ज़ल बेहतरीन।
दिल की ज़मीं पे गूँजते अल्फाजों की ,
ReplyDeleteतहरीर तुम्हारी हों ज़रूरी तो नहीं !
अद्भुत रचना बहुत सुंदर. शुक्रिया.
बाँधो न कायदों की बंदिशों में तुम हमें ,
ReplyDeleteहर साँस तुम्हारी हो ज़रूरी तो नहीं !
क्या बात है..साधन जी...आज तो एकदम अलग ही रंग में हैं....काबिल-ए-तारीफ़ रचना
सचमुच, आपकी तरह हर कोई इतनी शानदार गजल कहे यह जरूरी तो नहीं।
ReplyDelete------
ओझा उवाच: यानी जिंदगी की बात...।
नाइट शिफ्ट की कीमत..
बाँधो न कायदों की बंदिशों में तुम हमें ,
ReplyDeleteहर साँस तुम्हारी हो ज़रूरी तो नहीं !
....
माना की हर एक खेल में माहिर बहुत हो तुम ,
हर मात हमारी हो ज़रूरी तो नहीं !
बहुत अच्छी पंक्तियां
This comment has been removed by the author.
ReplyDeleteबहुत ख़ूबसूरती के साथ बेबसी का इजहार किया है
ReplyDelete" हर जीत तुम्हारी हो जरूरी तो नहीं "
जिंदगी में सब कुछ सहना पड़ता है दिल के उदगार शब्दों में साकार हो जाते हैं |बहुत खूब अति सुन्दर
आशा
हर जीत तुम्हारी हो ज़रूरी तो नहीं ,
ReplyDeleteहर हार हमारी हो ज़रूरी तो नहीं ! हर शब्द दिल से निकला है...सुन्दर गजल...
माना की हर एक खेल में माहिर बहुत हो तुम ,
ReplyDeleteहर मात हमारी हो ज़रूरी तो नहीं !
बेहतरीन!
----------------------
आपकी एक पोस्ट की हलचल आज यहाँ भी है
सही व्याख्यान किया है आपने समाज का जहाँ हर रिश्ते में एक दूरी रहनी चाहिए.. हर इंसान को अपनी सोच के लिए जगह मिलनी चाहिए.. तभी एक सार्थक रिश्ता कायम होता है..
ReplyDeleteखूबसूरत पेशकश..
हर जीत तुम्हारी हो ज़रूरी तो नहीं ,
ReplyDeleteहर हार हमारी हो ज़रूरी तो नहीं !
वाह क्या कहूँ लाजवाब रचना। बधाई।
माना की हर एक खेल में माहिर बहुत हो तुम ,
ReplyDeleteहर मात हमारी हो ज़रूरी तो नहीं !
waise to sabhi sher behtareen hai lekin ye sabse achha laga......
haarne ka bhi apna mazaa hai....
माना की हर एक खेल में माहिर बहुत हो तुम ,
ReplyDeleteहर मात हमारी हो ज़रूरी तो नहीं !
सुन्दर सरल अल्फाज,खूबसूरत प्रस्तुति.
आपकी काव्य 'साधना' से मन प्रसन्न हो गया साधना जी.
बहुत बहुत बधाई.
मेरे ब्लॉग पर आईयेगा.आपका स्वागत है.
मुझे प्रोत्साहित करने के लिये सभी पाठकों की मैं हृदय से आभारी हूँ ! आप सभी का बहुत बहुत धन्यवाद !
ReplyDeleteबहुत ख़ूबसूरत और लाजवाब रचना लिखा है आपने! बेहतरीन प्रस्तुती!
ReplyDelete