मौन की दीवारों से
टकरा कर लौटती
अपनी ही आवाज़ों की
बेचैन प्रतिध्वनियों को
मैं खुद ही सुनती हूँ ,
और अपनी राहों में बिछे
अनगिनती काँटों को
अपनी पलकों से
खुद ही चुनती हूँ !
अपनी चंद गिनी चुनी
अभिलाषाओं, इच्छाओं,
भावनाओं, अभिव्यक्तियों
पर कभी ना खुलने वाले
तुम्हारे दमन के
आतातायी ताले की
आक्रामकता को
मैं चुपचाप सहती हूँ ,
और अपनी
अकथनीय वेदना की
दुख भरी कहानी
निर्वासन के एकांत पलों में
खुद से ही कहती हूँ !
अपने मन के निर्जन,
नि:संग कारागार में
दीवारों पर सर पटकती
वर्षों से निरुद्ध अपनी
व्यथित अंतरात्मा को
अपनी ही बाहों का
संबल दे अपने अंक में
असीम दुलार से
स्वयं ही समेट लेती हूँ ,
और घायल होती
अपनी चेतना को
अपने जर्जर शीतल
आँचल की छाँव में
मृदुल स्पर्श से सहला
खुद ही लपेट लेती हूँ !
साधना वैद !
चित्र गूगल से साभार -
बेहद मार्मिक कविता...
ReplyDeleteकितनी ही नारियों के मन का सच....कितना कुछ अनकहा रह जाता है...और सबको अपनी भावनाएं मुखरित करने का हुनर भी नहीं आता.
नारी-मन के अंतरतम कोने में झाँक उनका हाल बयाँ करने की अद्भुत क्षमता है आपमें....शुभकामनाएं
और अपनी राहों में बिछे अनगिनती काँटों को अपनी पलकों से खुद ही चुनती हूँ !.....
ReplyDeleteअपनी व्यथित अंतरात्मा को अपनी ही बाहों का संबल दे अपने अंक में असीम दुलार से स्वयं ही समेट लेती हूँ , और घायल होती अपनी चेतना को अपने जर्जर शीतल आँचल की छाँव में मृदुल स्पर्श से सहला खुद ही लपेट लेती हूँ !.......
नारी मन की वेदना और वेदना से जूझने की मज़बूत आशा को सुन्दर शब्द दिए हैं आपने... सुन्दर रचना..
भावमय करते शब्दों के साथ बेहतरीन प्रस्तुति ।
ReplyDeleteचर्चा मंच के साप्ताहिक काव्य मंच पर आपकी (कोई पुरानी या नयी ) प्रस्तुति मंगलवार 14 - 06 - 2011
ReplyDeleteको ली गयी है ..नीचे दिए लिंक पर कृपया अपनी प्रतिक्रिया दे कर अपने सुझावों से अवगत कराएँ ...शुक्रिया ..
साप्ताहिक काव्य मंच- ५० ..चर्चामंच
अंतर्मन की व्यथा का बहुत गहराई से आकलन किया है |भाव पूर्ण अभिव्यक्ति |
ReplyDeleteआशा
बेहद खुबसूरत भावों से सनी पंक्तिया है , दिलों को स्पर्श देती हुयी बधाई
ReplyDeleteदीवारों पर सर पटकती
ReplyDeleteवर्षों से निरुद्ध अपनी
व्यथित अंतरात्मा को
अपनी ही बाहों का
संबल दे अपने अंक में
असीम दुलार से
स्वयं ही समेट लेती हूँ ,.....
बहुत मार्मिक...रचना के भाव अंतस को गहराई तक छू जाते हैं..बहुत सुन्दर प्रस्तुति..
बहुत ही मार्मिक रचना, बधाई और शुभकामनाएं |
ReplyDelete- विवेक जैन vivj2000.blogspot.com
छोटी परंतु बहुत ही मार्मिक कविता| अन्तर्मन को ले कर सुंदर प्रस्तुति|
ReplyDeleteअंतर्मन के संवदनशील भाव....... बहुत बढ़िया
ReplyDeleteआपकी पोस्ट की चर्चा यहाँ भी है .....
ReplyDeleteपरखना मत ,परखने से कोई अपना नहीं रहता ,कुछ चुने चिट्ठे आपकी नज़र
--
यह मौन कि दीवार कितनी ही अभिलाषाओं का दम तोड़ देती है .. और एहसास भी नहीं होता कि कितनी इच्छाओं का खून कर दिया ..खुद ही संभलना पड़ता है .. नारी मन को बहुत मार्मिक शब्दों में ढाला है ...
ReplyDeleteनारी मन की व्यथा का मार्मिक चित्रण किया है……………कुछ मौन हमेशा दीवारो मे ही दफ़न रह्ते हैं।
ReplyDeletebahut sundarta se vyatha ko pradrshit kiya hai ,,,,,,,
ReplyDelete... sahi me hriday ki aawaj ko aapne kavita ke rup me pragat kiya hai ......
काफी कुछ कह गयीं हैं आप इस रचना में !
ReplyDeleteनारी मन का वह कोना जहाँ शायद ही कोई पहुंच पाए...
एक अजीब सा मौन...
कुछ अनकही इच्छायें...
कुछ अनकहे एहसास...
जिसे सुन कर भी कोई समझ नहीं पाता...
देख कर भी जो दिखाई नहीं देता....
नारी मन का वो अनछुआ पहलू...
आपकी कलम से काफी हद तक बच नहीं पाया है...!!
बहुत सुंदर .......
ReplyDeleteबेहतरीन रचना....
ReplyDeleteअंतर्द्वंद का सुन्दर और सार्थक चित्रण.पूरी कविता शानदार
ReplyDeleteबहुत सुन्दर, लाजवाब और भावपूर्ण रचना लिखा है आपने! उम्दा प्रस्तुती!
ReplyDeleteमेरे नए पोस्ट पर आपका स्वागत है-
http://seawave-babli.blogspot.com/
http://ek-jhalak-urmi-ki-kavitayen.blogspot.com/
बहुत ही सुन्दर कविता...
ReplyDeleteआभार- विवेक जैन vivj2000.blogspot.com
मन की व्यथा का ,अंतरिम भावनाओं का खूबसूरत वर्णन ...आपके अन्दर की शक्ति बा ब्यौरा दे रही है ये रचना ...!!
ReplyDeleteबधाई....!!
अपनी चेतना को
ReplyDeleteअपने जर्जर शीतल
आँचल की छाँव में
मृदुल स्पर्श से सहला
खुद ही लपेट लेती हूँ
gazab ka likhi hain.......