ये लकीरें भी ना !
कितना छलती हैं इंसान को !
कभी माथे की लकीरें !
तो कभी हाथों की लकीरें !
कभी चहरे की लकीरें !
तो कभी किस्मत की लकीरें !
हरदम उलझाए रखती हैं
!
ना तो खुद सुलझती
हैं ! ना सुलझाने में आती हैं !
कितनी गहरी हैं मेरे
हाथों की लकीरें !
जाने क्या-क्या
छिपाए हुए हैं अपनी पतली सी जान में जो मैं भी नहीं जान पाती !
नहीं जान पाती शायद
इसीलिये माथे पर चिंता लकीरें भी गहरी होती जाती हैं !
लकीरों का यह
अनसुलझा रहस्य जीवन में भय, दुराग्रह और असुरक्षा
की भावना को और अधिक
गहरा जाता है !
जिन बातों को हम
नहीं समझ पाते दौड़ जाते हैं उनका समाधान जानने के लिए किसी सयाने के पास, किसी पंडित
के पास !
हमारा जीवन, हमारा
भाग्य !
हमारे कर्म, हमारे
कर्मों के परिणाम !
हमारा अतीत, हमारा
भविष्य !
कमाल है ना ! इनके
बारे में हम नहीं जान पाते !
हम कोई अनुमान भी
नहीं लगा पाते !
लेकिन इस बात पर
भरोसा करते हैं कि कोई एक्स वाई ज़ेड पंडित जी ज़रूर जानते होंगे !
हमारे कर्म हमें किस
दिशा में ले जा रहे हैं इसका हमें तो कतई कोई भान नहीं होता लेकिन कोई दूसरा, जो
आज से पहले कभी हमसे मिला भी नहीं है, हमें बिलकुल सही रास्ता बता देगा यह भरोसा
हमें बड़ी आसानी से हो जाता है !
भला क्यों ?
क्या यह इस बात का
परिचायक नहीं कि हमारे अन्दर आत्मविश्वास और आत्म विश्लेषण करने की क्षमता की घोर
कमी है !
जब अपने बारे में हम
ही नहीं जान पाते तो फिर कोई नितांत अनजान व्यक्ति कैसे हमारे कर्मों का हिसाब लगा
कर हमारी समस्याओं का समाधान हमें बता सकता है !
वह तो कपोलकल्पित
समीकरणों का हिसाब लगा कर एक मोटी फीस लेकर चंद जवाब हमारे हाथ में थमा देता है !
ये उत्तर सही साबित
होते है या गलत यह तो वक्त आने पर ही पता चलेगा ना ! कौन जाने परिणाम चौबीस घंटों
में निकलेगा या चौबीस दिन में, चौबीस महीनों में या चौबीस सालों में !
और गलत निकल भी गया
तो किसकी गर्दन नापेंगे ! पंडित जी तो पहचानेंगे भी नहीं ! इतने समय के बाद तो यही
होगा कि तू कौन और मैं कौन !
फिर क्या करेंगे ! इसलिये
क्या यही उचित नहीं कि हमारे हाथ की रेखाओं में क्या लिखा है और हमारे भाग्य के
कौन से रहस्य उनमें छिपे हुए हैं यह किसी पंडित या विशेषज्ञ से पढ़वायें बजाय इसके
उन लकीरों पर अपनी भाषा में, अपनी इच्छा के अनुसार अपने भाग्य की इबारत हम स्वयं ही
लिख दें ताकि समय-समय पर आवश्यकता के अनुसार उनमें मनमाफिक फेर बदल भी कर सकें और
उनकी दिशा को भी बदल सकें !
साधना वैद
behtreen post....
ReplyDeleteयह कविता नहीं एक निर्वाण सी मनःस्थिति है
ReplyDeleteलकीरें उद्गम बन गयीं
विचारों की लहरें मन को छू रहीं - पर आत्मविश्लेषण हो तब घिसी पिटी लकीरों से परे नज़र आये ...
आत्मविश्वास की कमी ही लकीरों को पढ़वाती है ... अक्सर लोग या तो भूतकाल में रहना चाहते हैं या भविष्य को ले कर चिंतित होते हैं और वर्तमान हाथ से निकल जाता है ...
ReplyDeleteसार्थक पोस्ट
मनःस्थिति को दर्शाती बहुत ही सार्थक रचना.
ReplyDeleteजब अपने पर भरोसा हो तो हाथ की लकीरें क्या करेंगी |आत्म विशवास से सभी लकीरों को झुटलाया जा सकता है |
ReplyDeleteआशा
अति गम्भीर व विचारणीय आलेख, लकीरें बदलती रहती हैं ,उन पर भरोसा क्या करना.
ReplyDeleteकाश की कोई ऐसी लकीर भी होती जिसको देख के जीवन बदल सकने की प्रेरणा होती ...
ReplyDeleteमन को छूती है रचना ...
आत्मविश्वास और आत्मविश्लेषण के लिए प्रेरित करते भाव .......
ReplyDeleteबहुत सुंदर...मन को छूती रचना
ReplyDeleteजीवन की सार्थकता इसी में है!
ReplyDeleteswagat hai is sundar prastuti ka behatareen
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