भरा हुआ हो कलुष मनुज के हृदयों में
संस्कार की बात वहाँ बेगानी है
घर घर में बसते हों रावण कंस जहाँ
मानवता की बात वहाँ बेमानी है !
मूल्यहीन हो जिनके जीवन की शैली
आत्मतोष हो ध्येय चरम बस जीवन का
नहीं ज़रा भी चिंता औरों के दुःख की
आत्मनिरीक्षण की आशा बेमानी है !
परदुख कातरता, पर पीड़ा, करुणा का
भाव नहीं हो जिनके अंतर में तिल भर
पोंछ न पाए दीन दुखी के जो आँसू
वैष्णव गुण का ज्ञान वहाँ बेमानी है !
कोई तो समझाए इन नादानों को
जीवनमूल्य सिखाये इन अनजानों को
जानेंगे जब त्याग, प्रेम की महिमा को
मानेंगे निज हित चिंता बेमानी है !
चित्र - गूगल से साभार
साधना वैद
जी नमस्ते,
ReplyDeleteआपकी लिखी रचना शुक्रवार २९ मई २०२० के लिए साझा की गयी है
पांच लिंकों का आनंद पर...
आप भी सादर आमंत्रित हैं...धन्यवाद।
सार्थक रचना।
ReplyDeleteहार्दिक धन्यवाद शास्त्री जी ! बहुत बहुत आभार आपका ! सादर वन्दे !
Deleteहार्दिक धन्यवाद श्वेता जी ! बहुत बहुत आभार आपका ! सप्रेम वन्दे !
ReplyDeleteहमारे समाज का बुनियादी ढाँचा तय करने वाली शिक्षा-प्रणाली का पाठ्यक्रम कुछ और कहता है और हमारी पौराणिक कथाएँ कुछ और। दोनों में जो सही-गलत मैं नही कह रहा, पर जो सही हो , उसे ही लागू करना चाहिए पाठ्यक्रम में।
ReplyDeleteनहीं तो आज का बच्चा, कल का युवा और परसों का वयस्क दोनों के बीच में पूरी तरह उलझ जाता है। पाठ्यक्रम कहता है-सत्यमेव जयते और समाज बोलता है कि व्यवहारिक होने के लिए झूठ बोलना पड़ता है। पाठ्यक्रम कहता है- गंगा नदी है और सूरज आग का गोला और समाज कहता है, गंगा माता और सूरज देवता। अब कल का स्कूल का बच्चा वयस्क हो कर समाज के व्यवहारिक जीवन में कैसे तय करे कि कौन सही, कौन गलत।
वहीं से शुरू हो जाती है दोहरी मूल्यहीन जीवन शैली .. शायद ...
हार्दिक धन्यवाद सुबोध जी ! पौराणिक कथाएँ सदियों से अपनी उसी गति से श्रद्धा और भक्ति के साथ सुनी सुनाई जा रही हैं और शैक्षणिक पाठ्यक्रम भी बच्चों को वही सिखा पढ़ा रहे हैं जो उनके नीति नियंता उन्हें निर्देशित करते हैं ! वयस्क होने पर इन दोनों विरोधाभासों में संतुलन बनाकर सीखने की समझ सबमें आ ही जाती है ! ऐसा नहीं है कि समाज में सब मूल्यविहीन हो गए हैं और ऐसा भी नहीं है कि सब सदाचारी ही हैं और आदर्श व्यक्तित्व के स्वामी हो गए हैं ! हर इंसान में अपने आस पास के परिवेश, पारिवारिक संस्कारों और स्वयं की तर्क शक्ति से जो समझ विकसित होती है वह उसीके अनुरूप व्यवहार करता है ! आभार आपका इतने ध्यान से मेरी रचना को पढ़ने के लिए ! इसी प्रकार उत्साह बढ़ाते रहिएगा ! सादर साभार !
ReplyDeleteआदरणीया दीदी,
ReplyDeleteसादर अभिवादन एवं स्नेह। वर्तमान में अधिकतर लोगों के आचरण कुछ इसी तरह के हो गए हैं, इनके सामने मानवता और आत्मचिंतन की बात करना बेकार है। परंतु कुछ लोग अब भी अपने सिद्धांतों पर जीते हैं।
समाज के चरित्र पर प्रकाश डालती सुंदर रचना है।
हार्दिक धन्यवाद मीना जी ! बहुत बहुत आभार आपका !
Deleteवाह!साधना जी ,बहुत सुंदर !
ReplyDeleteजी शुभा जी ! दिल से धन्यवाद एवं बहुत बहुत आभार आपका !
Deleteजी नमस्ते,
ReplyDeleteआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल रविवार (३१-०५-२०२०) को शब्द-सृजन-२३ 'मानवता,इंसानीयत' (चर्चा अंक-३७१८) पर भी होगी।
चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट अक्सर नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
आप भी सादर आमंत्रित है
….
अनीता सैनी
हार्दिक धन्यवाद अनीता जी ! आपका बहुत बहुत आभार ! सप्रेम वन्दे !
Deleteमूल्यहीन हो जिनके जीवन की शैली
ReplyDeleteआत्मतोष हो ध्येय चरम बस जीवन का
नहीं ज़रा भी चिंता औरों के दुःख की
आत्मनिरीक्षण की आशा बेमानी है !
वाह!!!
लाजवाब सृजन।
हार्दिक धन्यवाद सुधा जी ! बहुत बहुत आभार आपका !
Deleteउम्दा लिखा है |
ReplyDeleteसमाज में विसंगतियां अब इतनी हो गई हैं कि जितना लिखो कम है |
हार्दिक धन्यवाद जीजी ! आभार आपका !
ReplyDeleteTease me until I’m begging for it Click here and Check me out i am getting naked here ;)
ReplyDelete