चंचल चुलबुली हवा ने
जाने बादल से क्या
कहा
रुष्ट बादल ज़ोर से
गरजा
उसकी आँखों में क्रोध
की
ज्वाला रह रह कर
कौंधने लगी ।
डरी सहमी वर्षा सिहर
कर
काँपने लगी और अनचाहे
ही
उसके नेत्रों से गंगा
जमुना की
अविरल धारा बह चली ।
नीचे धरती माँ से
उसका
दुख देखा न गया ,
पिता गिरिराज हिमालय
भी
उसकी पीड़ा से अछूते
ना रह सके ।
धरती माँ ने बेटी
वर्षा के सारे आँसुओं को
अपने आँचल में समेट
लिया
और उन आँसुओं से
सिंचित होकर
हरी भरी दानेदार फसल
लहलहा उठी ।
पिता हिमालय के शीतल
स्पर्श ने
वर्षा के दुखों का
दमन कर दिया
और उसके आँसू गिरिराज
के वक्ष पर
हिमशिला की भाँति जम
गये
और कालांतर में गंगा
के प्रवाह में मिल
जन मानस के पापों को
धोकर
उन्हें पवित्र करते
रहे !
साधना वैद
बेहतरीन..
ReplyDeleteइस बार सीमा दीदी ने भी एक रचना दी है
सादर नमन..
आपकी इस प्रस्तुति का लिंक 27.6.19 को चर्चा मंच पर चर्चा - 3379 में दिया जाएगा
ReplyDeleteधन्यवाद
बढ़ीया रचना
ReplyDeleteहार्दिक धन्यवाद यशोदा जी ! आभार आपका !
ReplyDeleteआपका हृदय से बहुत बहुत धन्यवाद एवं आभार दिलबाग जी ! सादर वन्दे !
ReplyDeleteहार्दिक धन्यवाद सरिता जी ! स्वागत है आपका !
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ReplyDeleteधन्यवाद उम्दा लिखा है |
हार्दिक धन्यवाद सु-मन जी !
ReplyDeleteआपका हृदय से बहुत बहुत धन्यवाद एवं आभार श्वेता जी ! सप्रेम वन्दे !
ReplyDeleteबहुत सुंदर रचना
ReplyDeleteवाह!!एक से बढकर एक ...!!! बहुत खूब!साधना जी ।
ReplyDeleteबहुत लाजवाब रचना
ReplyDeleteवाह!!!
हृदय से आपका बहुत बहुत धन्यवाद शुभा जी ! दिल से आभार !
ReplyDeleteसुधा जी आपका हृदय से बहुत बहुत धन्यवाद एवं आभार !
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