अब तक इतने सालों से
कठपुतलियाँ ही तो नचाती आई हूँ ,
मजबूती से उनकी डोर
अपनी उँगलियों में लपेटे-लपेटे
हर रोज वही सदियों पुरानी कहानी
और सदियों पुराना तमाशा ही
तो दिखाती आई हूँ !
यह देखो उनकी डोर से
मेरी उँगलियाँ घायल होकर
किस तरह रक्तरंजित हो गयी हैं ,
और वही बोल, वही गीत, वही कहानी
सुनाते-सुनाते मेरी सारी
संवेदनाएं भी सो गयी हैं !
‘ओहोजी आगे चलो’, ‘ओहोजी पीछे चलो’ ,
‘ओहोजी घूम के नाचो’, ‘ओहोजी झूम के नाचो’
ओहो जी झुक के सबको सलाम करो’,
‘चलो अब सो जाओ’,
सारे उल्लास उत्साह के भाव तो
बस मेरी आवाज़ के उतार चढ़ाव में होते हैं ,
भावनाहीन निर्जीव पात्र तो महज़
मेरे हाथों की कठपुतलियाँ होते हैं !
वही चमकते जोड़े में सजी रानी की शादी
वही हाथी, घोड़े, ऊँटों से सजी बरात
वही राजा का पराक्रम दिखा
रानी को युद्ध में जीत कर ले आना ,
वही अन्य सभी कठपुतलियों का
ढोल ताशे की लय पर जोश के साथ
शादी के गीतों को झूम-झूम कर गाना !
भावनाओं के आवेग पर
कस कर डाट लगा मैं
सालों से इसी तरह रोते को हँसाती
और हँसते को रुलाती आ रही हूँ ,
पता नहीं कठपुतलियाँ मुझे नचा रही हैं
या मैं कठपुतलियों को नचा रही हूँ !
साधना वैद
पता नहीं कठपुतलियाँ मुझे नचा रही हैं
ReplyDeleteया मैं कठपुतलियों को नचा रही हूँ !
बहुत ही सार्थक कविता.....
हम ऐसे रूटीन में बंध जाते हैं कि सारी संवेदनाएं सो जाती हैं और सबकुछ बस एक नियम के तहत होता रहता है.
एक मौलिक प्रश्न -
ReplyDeleteपता नहीं कठपुतलियाँ मुझे नचा रही हैं
या मैं कठपुतलियों को नचा रही हूँ !
बहुत खूब साधना जी
सादर
श्यामल सुमन
www.manoramsuman.blogspot.com
पता नहीं कठपुतलियाँ मुझे नचा रही हैं
ReplyDeleteया मैं कठपुतलियों को नचा रही हूँ ....
wah.....kya sundar kavita likhi hain.
दैनिक दिनचर्या के काम सब कठपुतली की तरह ही करते रहते हैं ... सच कहूँ तो मैं तो खुद ही कठपुतली की तरह हूँ जो बस आज्ञा का पालन करना जानता हो यानि की डोर कोई और चलाता हो :):)
ReplyDeleteवैसे कभी कभी मुझे लगता है कि तमाशे के बाद जब सब सो जाते होंगे ...तमाशा दिखाने वाला भी तो डिब्बे में रखी कठपुतलियों में जान आ जाती होगी और तब वो स्वयं को खोजती होंगी ..जैसे कि ....
बहुत सुन्दर रचना ..एक प्रश्न मन में छोडती हुई ..
पता नहीं कठपुतलियाँ मुझे नचा रही हैं
ReplyDeleteया मैं कठपुतलियों को नचा रही हूँ !
एक सच ... बेहतरीन शब्द रचना ।
वही बोल, वही गीत, वही कहानी
ReplyDeleteसुनाते-सुनाते मेरी सारी
संवेदनाएं भी सो गयी हैं !
kai baar to main kathputli ho jati hun aur kabhi idhar kabhi udhar ... sab khush , aur main !
ाच्छा है नही पता चलता कि कौन किसे नचा रहा है बस ऐसे ही जीवन बीत जाता है। सुन्दर अभिव्यक्ति।
ReplyDeletejindgi ki kadvaahto ka jitni bareeki se vishleshan karte jayenge jindgi utni hi apne hi liye doobhar hoti jayegi...behtar hai jindgi ke is samudr me uthle uthle hi rahe varna mayoosiyon me ghir kar tair nahi payenge.
ReplyDeletedil ko dard de gayi ye rachna.
साधना जी बहुत भावपुर्ण शव्दो मे आप ने गहरी बात कह दी पता नही हम नाचा रहे हे या यह हमे नचा रही हे...? धन्यवाद
ReplyDeletekathpootli per khoobsoorat lika hai aapne
ReplyDeleteबेहद नयापन लिए पोस्ट बहुत अच्छी लगी |सच में हम कठपुतलियाँ हैं जिनकी डोर किसके हाथ में हैं
ReplyDeleteनहीं जानते पर दैनिक जीवन में नाचते ही रहते हैं
आपका observation बहुत keen है |
बहुत बहुत बधाई
आशा
सार्थक कठपुतलियाँ देखते देखते लोगों के बारे में कोई सोचता नही ... संवेदनशील रचना आयी ...
ReplyDeleteसुन्दर अभिव्यक्ति।
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