ऐसा क्यों होता है
जब भी कोई शब्द
तुम्हारे मुख से मुखरित होते हैं
उनका रंग रूप, अर्थ आकार,
भाव पभाव सभी बदल जाते हैं
और वे साधारण से शब्द भी
चाबुक से लगते हैं,
तथा मेरे मन व आत्मा सभी को
लहूलुहान कर जाते है !
ऐसा क्यों होता है
जब भी कोई वक्तव्य
तुम्हारे मुख से ध्वनित होता है
तुम्हारी आवाज़ के आरोह अवरोह,
उतार चढ़ाव, सुर लय ताल
सब उसमें सन्निहित उसकी
सद्भावना को कुचल देते है
और साधारण सी बात भी
पैनी और धारदार बन
उपालंभ और उलाहने सी
लगने लगती है
और मेरे सारे उत्साह सारी खुशी को
पाला मार जाता है !
ऐसा क्यों होता है
तुमसे बहुत कुछ कहने की,
बहुत कुछ बाँटने की आस लिये
मैं तुम्हारे मन के द्वार पर
दस्तक देने जब आती हूँ तो
‘प्रवेश निषिद्ध’ का बोर्ड लटका देख
हताश ही लौट जाती हूँ
और भावनाओं का वह सैलाब
जो मेरे ह्रदय के तटबंधों को तोड़ कर
बाहर निकलने को आतुर होता है
अंदर ही अंदर सूख कर
कहीं बिला जाता है !
और हम नदी के दो
अलग अलग किनारों पर
बहुत दूर निशब्द, मौन,
बिना किसी प्रयत्न के
सदियों से स्थापित
प्रस्तर प्रतिमाओं की तरह
कहीं न कहीं इसे स्वीकार कर
संवादहीन खड़े रहते हैं
क्योंकि शायद यही हमारी नियति है !
साधना वैद
अंतर्द्वन्द और भाव
ReplyDeleteबहुत सुन्दर
बहुत खूब ... अपने अंतर-मान को संवेदन शील हो कर लिखा है, जो है उसे जीवन की नियति मान कर स्वीकार करना ... सहज ही ... अच्छी अभिव्यक्ति है ...
ReplyDeleteसुन्दर रचना
ReplyDeletewaah adbhut rachna...bahut khoob...
ReplyDeleteshabdon ki sunder rachna
ReplyDeletehttp://sanjaykuamr.blogspot.com/
बहुत खूब ...
ReplyDeleteachhi rachana hai...
ReplyDeleteपता नहीं क्यों मैं आपसे इस सन्दर्भ में सहमत नहीं होपाती |क्या सारे के सारे अधिकार दूसरों के आगे गिरबी रख देना आर फिर उससे दया की भीख की उम्मीद करना नारी जाति का सरासर अपमान नहीं है | नहीं यह नियति नहीं जान बूझकर खुद को डिग्रेड करना है |
ReplyDeleteमैं तुम्हारे मन के द्वार पर
ReplyDeleteदस्तक देने जब आती हूँ तो
‘प्रवेश निषिद्ध’ का बोर्ड लटका देख
हताश ही लौट जाती हूँ,
बहुत संवेदनशील!
बहुत ही सुन्दर और शानदार रचना लिखा है आपने! बधाई!
ReplyDeleteबहुत सुन्दर रचना लिखा है आपने जो काबिले तारीफ़ है! बधाई!
ReplyDeleteबीनाजी ,
ReplyDeleteबहुत दिनों के बाद आप मेरे ब्लॉग पर आई हैं ! आपका बहुत बहुत स्वागत है ! आपकी प्रतिक्रया अपनी जगह ठीक है ! लेकिन हर नारी में लगातार जूझने की ताकत भी तो नहीं होती ! कभी घर की शान्ति बनाए रखने के लिए, कभी बच्चों की मानसिकता पर दुष्प्रभाव ना पड़े इसलिए, तो कभी माता पिता की अनबन की वजह से बच्चे असुरक्षित महसूस ना करें इसलिए, या फिर कभी थक हार कर आँख बंद कर चुपचाप खुद को हर चीज़ से विलग करने की चाहत के कारण नारी को चुपचाप ही सब कुछ सहना पड़ जाता है ! घर में हर समय झाँसी की रानी बन कर भी तो नहीं रहा जा सकता ! आपकी प्रतिक्रया से मुझे बहुत प्रेरणा मिलती है ! इसके लिए आपकी आभारी हूँ !
बहुत सही लिखा है आपने |वास्तव में जब कुछ कहना चाहो या बताना चाहो कोई सुनवाई नहीं होती केवल
ReplyDeleteनो एंट्री का बोर्ड ही लटका मिलता है
आशा
बुधवार, २ जून २०१०
ReplyDeleteऐसा क्यों होता है !
ऐसा क्यों होता है
जब भी कोई शब्द
तुम्हारे मुख से मुखरित होते हैं
उनका रंग रूप, अर्थ आकार,
भाव पभाव सभी बदल जाते हैं
ऐसा क्यों होता है
तुमसे बहुत कुछ कहने की,
बहुत कुछ बाँटने की आस लिये
मैं तुम्हारे मन के द्वार पर
दस्तक देने जब आती हूँ तो
‘प्रवेश निषिद्ध’ का बोर्ड लटका देख
हताश ही लौट जाती हूँ...
आपका अनकहा ना समझे , और कहा हुआ सुनने की कोशिश ही ना करे तो पीड़ा घनी होती है ...
आपने सही कहा की घर में हमेशा झाँसी की रानी बनकर नहीं रहा जा सकता ...किसी के द्वारा सुने जाने का इन्तजार करने से बेहतर है अपना ध्यान दूसरी रुचियों में लगाना की कोई आपका कहा सुनने को तरस जाए ...!!
‘प्रवेश निषिद्ध’ का बोर्ड लटका देख
ReplyDeleteहताश ही लौट जाती हूँ,
बहुत संवेदनशील
ऐसा ही होता है...
ReplyDeleteबहुत उम्दा भाव!
वाणी पर संयम बेहद जरूरी हैं...
ReplyDeleteकुछ भी कहने से पहले उसे नाप-तोल लेना बेहद जरूरी हैं, कहते हैं ये ऐसा तीर है जो एक बार कमान से निकल गया फिर लौटकर वापस नहीं आता
वाह रे नियति।साधुवाद!
ReplyDeleteसंवादहीनता की पीड़ा ।
ReplyDeleteप्रशंसनीय ।