शुष्क तपते रेगिस्तान के
अनंत अपरिमित विस्तार में
ना जाने क्यों मुझे
अब भी कहीं न कहीं
एक नन्हे से नखलिस्तान
के मिल जाने की आस है
जहां स्वर्गिक सौंदर्य से ओत प्रोत
सुरभित सुवासित रंग-बिरंगे
फूलों का एक सुखदायी उद्यान
लहलहा रहा होगा !
सातों महासागरों की अथाह
अपार खारी जलनिधि में
प्यास से चटकते
मेरे चिर तृषित अधरों को
ना जाने क्यों आज भी
एक मीठे जल की
अमृतधारा के मिल जाने की
जिद्दी सी आस है जो मेरे
प्यास से चटकते होंठों की
तृषा बुझा देगी !
विषैले कटीले तीक्ष्ण
कैक्टसों के विस्तृत वन की
चुभन भरी फिजां में
ना जाने क्यों मुझे
आज भी माँ के
नरम, मुलायम, रेशमी आँचल के
ममतामय, स्नेहिल, स्निग्ध,
सहलाते से कोमल
स्पर्श की आस है
जो कैक्टसों की खंरोंच से
रक्तरंजित मेरे शरीर को
बेहद प्यार से लपेट लेगा !
सदियों से सूखाग्रस्त घोषित
कठोर चट्टानी बंजर भू भाग में
ना जाने क्यों मुझे
अभी भी चंचल चपल
कल-कल छल-छल बहती
मदमाती इठलाती वेगवान
एक जीवनदायी जलधारा के
उद्भूत होने की आस है
जो उद्दाम प्रवाह के साथ
अपना मार्ग स्वयं विस्तीर्ण करती
निर्बाध नि:शंक अपनी
मंजिल की ओर बहती हो !
लेकिन ना जाने क्यों
वर्षों से तुम्हारी
धारदार, पैनी, कड़वी और
विष बुझी वाणी के
तीखे और असहनीय प्रहारों में
मुझे कभी वह मधुरता और प्यार,
हितचिंता और शुभकामना
दिखाई नहीं देती
जिसके दावे की आड़ में
मैं अब तक इसे सहती आई हूँ
लेकिन लाख कोशिश करने पर भी
कभी महसूस नहीं कर पाई !
साधना वैद
यहे जिजीविषा तो नारी कों जीवित रखती आई है यह उसकादुर्भाग्य ही है कि जो सहज मिलना चाहिए उसके लिए उसे भर समुन्द्र आंसू बहाने पड़ते है विनती चिरौरी करनी पडती है तब जाकर कहीं भीख के रूप में ,उपेक्षा के रूप में जो मिलता भी है वह कही से भी ग्रहण के योग्य नहीं होता|
ReplyDeleteसुन्दर रचना ,कैसे लिख पाती हैं इतना तीखा जो सीधा कलेजे कों चीर जाता है|
साधना जी कविता का आकार दीर्घ होने से कविता बिखरने का खतरा रहता है और तब प्रभाव घनीभूत नहीं हो पाता। पर आपकी इस लंबी कविता की पंक्तियां माला के मोती की तरह परस्पर मिली और जुड़ी हैं। कविता पूरी की पूरी एक ही रौ में लिखी है। इतनी लंबी कविता की रचना और उसके प्रभाव को अक्षुण्ण रखना आपको विशिष्ट रचनाकार की श्रेणी में ला खड़ा करता है। भाषा-भाव-विचार का ऐसा आद्यांत निर्वाह आपकी विशिष्ट काव्य-क्षमता का परिचायक है। बहुत अच्छी प्रस्तुति। हार्दिक शुभकामनाएं!
ReplyDeleteफ़ुरसत में .... सामा-चकेवा
विचार-शिक्षा
बहुत बहुत धन्यवाद मनोज जी ! आपने मेरी कविता को सराहना के योग्य समझा मुझे हार्दिक प्रसन्नता हुई है ! मेरे लिये यही सबसे बड़ा पुरस्कार है ! एक बार पुन: धन्यवाद !
ReplyDeleteबहुत अच्छी रचना बधाई |शब्द चयन बहुत अच्छा और सटीक है |
ReplyDeleteपढ़ कर आनंद आया |एक बार फिर से बधाई |
आशा
नारी हृदय के झंझावातों को सुन्दर शब्दों में वर्णित किया है ...बस यही जिजीविषा है ..एक उम्मीद ..बहुत अच्छी लगी रचना ..
ReplyDeleteनारी संवेदनाओं की बेहद गहन अभिव्यक्ति…………नारी के भावों को विस्तार और आकार दे दिया……………बेहतरीन प्रस्तुति।
ReplyDeleteसाधना जी नारी ता-उम्र स्मृतियों के रेगिस्तान में मानो मृगतृष्णा की सी तलाश लिए भटकती रहती है और ऐसी परिस्थिति में कई बार यथार्थ की कंटीली, पथरीली राहों से सामजस्य बैठाने में असहज महसूस करती है...ऐसी ही स्थिति यहाँ उजागर होती है.
ReplyDeleteकविता की जहाँ क्षमता,सफलता की बात की जाये तो मैं मनोज जी की बातों से पूर्णतः सहमत हूँ.
चर्चा मंच के साप्ताहिक काव्य मंच पर आपकी रचना मंगलवार 23 -11-2010
ReplyDeleteको ली गयी है ...
कृपया अपनी प्रतिक्रिया दे कर अपने सुझावों से अवगत कराएँ ...शुक्रिया ..
http://charchamanch.blogspot.com/
नारी मन की वेदना को बहुत सुन्दर शब्द दिये हैं इतना कुछ सह कर भी नारी अपने संस्कारों को छोड नही पाती सब कुछ सहती है। दिल को छू गयी आपकी रचना। शुभकामनायें।
ReplyDeleteविषम परिस्थितियों में भी येन प्रकारेण अपनी जिजीविषा की डोर थामे, प्रेम और समर्पण की राह पर बढ़ते रहना और जीवन भर अपने सहज प्राप्य के लिए तरसना, इन्हीं विडंबनाओं से उपजे नारी मन की अंतर्व्यथा को उकेरती.... गहन संवेदनाओं की बेहद मर्मस्पर्शी अभिव्यक्ति. आभार.
ReplyDeleteसादर
डोरोथी.
जिजीविषा को जीती हुई सुन्दर रचना!
ReplyDeleteआभार!