हिलती हुई मुंडेरें हैं और चटके हुए हैं पुल,
दुनिया एक चुरमुराई हुई सी चीज़ हो गई है।
लड़खड़ाते हुए सहारे हैं और डगमगाये हुए हैं कदम,
लक्ष्य तक पहुँचने की चाह आकाशकुसुम छूने जैसी हो गयी है।
खण्डहर हो चुकी इमारतें हैं और धराशायी हैं भवन,
मलबे के ढेर में ‘घरों’ को ढूँढने की कोशिश अब थक चली है।
टूटा हुआ विश्वास है और डबडबाई हुई है आँख,
अंधेरे की डाकिन आशा की नन्हीं सी लौ को
फूँक मार कर बुझा गयी है।
बेईमानों की भीड़ है और ख़ुदगर्ज़ों का है हुजूम,
इंसानियत के चेहरे की पहचान कहीं गुम हो गयी है।
लहूलुहान है शरीर और क्षतविक्षत है रूह,
दुर्भाग्य के इस आलम में सुकून की एक साँस तक जैसे दूभर हो गयी है।
ऐसे में मलबे के किसी छेद से बाहर निकल
पकड़ ली है मेरी उँगली नन्हे से एक हाथ ने
भर कर आँखों में भोला विश्वास,
और लिये हुए होठों पर एक कातर गुहार।
आस्था अभी पूरी तरह मरी नहीं!
हे ईश्वर! तुझे कोटिश: प्रणाम,
आस्था अभी पूरी तरह मरी नहीं।
भावपूर्ण सुन्दर भाव|अच्छी प्रस्तुति बधाई
ReplyDeleteआशा
बहुत मार्मिक प्रस्तुति ...
ReplyDeleteआस्था अभी पूरी तरह मरी नहीं!
ReplyDeleteहे ईश्वर! तुझे कोटिश: प्रणाम,
आस्था है तो जीवन है...
बहुत बढ़िया...
आह मार्मिक प्रस्तुति.
ReplyDeleteआपकी लिखी रचना "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" आज सोमवार 02 अगस्त 2021 शाम 5.00 बजे साझा की गई है.... "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!
ReplyDelete