हैरान हूँ
सदियों से
मुठ्ठी में बंद
यादों के स्निग्ध,
सुन्दर, सुनहरे मोती
अनायास ही अंगार की तरह
दहक कर
मेरी हथेलियों को
जला क्यों रहे हैं !
अंतरतम की
गहराइयों में दबे
मेरे सुषुप्त ज्वालामुखी में
घनीभूत पीड़ा का लावा
सहसा ही व्याकुल होकर
करवटें क्यों
बदलने लगा है !
वर्षों से संचित
आँसुओं की झील
की दीवारें सहसा
कमज़ोर होकर दरक
कैसे गयी हैं कि
ये आँसू प्रबल वेग के साथ
पलकों की राह
बाहर निकलने को
आतुर हो उठे हैं !
मेरे सारे जतन ,
सारे इंतजाम ,
सारी चेष्टाएं
व्यर्थ हुई जाती हैं
और मैं भावनाओं के
इस ज्वार में
उमड़ते घुमड़ते
लावे के साथ
क्षुद्र तिनके की तरह
नितांत असहाय
और एकाकी
बही जा रही हूँ !
क्या पता था
इस ज्वालामुखी को
इतने अंतराल के बाद
इस तरह से
फटना था और
मेरे संयम,
मेरी साधना,
मेरी तपस्या को
यूँ विफल करना था !
साधना वैद
ये लावा जितनी जल्दी निकल जाए उतना ही उचित रहता है..
ReplyDeleteभावनाओ का ज्वालामुखी ज्यादा दिन तक ह्रदय में दबा कर रखने से रिश्तों में महाप्रलय की परिस्थितियां बन जाती है..
महा देवी जी पंक्तियाँ याद आ गयी इस कृति को देखकर
जो घनीभूत पीड़ा थी
मस्तक में स्मृति-सी छायी
दुर्दिन में आँसू बनकर
वह आज बरसने आयी।
.................................
अब इसे सुन्दर रचना कहकर इस रचना की सार्थकता को कम नहीं करूँगा....
बहुत गहरे भाव लिए रचना |बहुत सुन्दर बन पडी है |बहुत अच्छी लगी |बधाई
ReplyDeleteमेरे सारे जतन ,
ReplyDeleteसारे इंतजाम ,
सारी चेष्टाएं
व्यर्थ हुई जाती हैं
और मैं भावनाओं के
इस ज्वार में
उमड़ते घुमड़ते
लावे के साथ
क्षुद्र तिनके की तरह
नितांत असहाय
और एकाकी
बही जा रही हूँ !
aisa hi hota hai, hamen lagta hai - humne vismriti ki chadar daal di hai, per hawa ka ek jhonka sabkuch hata deta hai
यादों के स्निग्ध सुनहरे मोती
ReplyDeleteअक्सर बन जाते हैं अंगार
और झुलसा देते हैं
दिल की हथेलियों को ,
ज्वालमुखी कितना ही
सुप्त क्यों न हो
कभी भी हो जाता है
जीवंत , और
बहा देता है सारा लावा
होता है जब शांत तो
फूट आता है
एक झरना शीतल
अपनी तपस्या ,
साधना और संयम को
विफल मत मानो
बस इस झरने की
शीतलता को आंको ....
आपकी यह रचना पढ़ कर मैं खुद एकाकी सी बहती जा रही हूँ ....पर ज्वालामुखी के फटने का सापेक्ष पक्ष भी देख रही हूँ ..
बहुत सुन्दर भावाभिव्यक्ति है ....
--
क्या पता था
ReplyDeleteइस ज्वालामुखी को
इतने अंतराल के बाद
इस तरह से
फटना था और
मेरे संयम,
मेरी साधना,
मेरी तपस्या को
यूँ विफल करना था !
बहुत गहरे भाव...बहुत गहरी भावाभिव्यक्ति....
बहुत गहन भाव..यादों का ज्वालामुखी सुसुप्त रहने पर भी कभी भी जाग्रत हो जाता है..भावनाओं की उत्कृष्ट अभिव्यक्ति..आभार
ReplyDelete"हैरान हूँ
ReplyDeleteसदियों से
मुठ्ठी में बंद
यादों के स्निग्ध,
सुन्दर, सुनहरे मोती
अनायास ही अंगार की तरह
दहक कर
मेरी हथेलियों को
जला क्यों रहे हैं !"
यादों की स्निग्धता....
अंगार में कब और कैसे परिवर्तित हो जाती है.......?
आश्चर्य ही होता है हमें समय बीत जाने पर...!!
और जब यादें अंगार बन कर मन के किसी अनदेखे,अनछुए कोने में दबी पड़ी रहें...तो देर-सबेर उनका प्रस्फुटन स्वाभाविक है....!!
बिलकुल ,ह्रदय को उद्वेलित करनेवाली रचना है...
ReplyDeleteसंचित आँसू...दमित भावनाएं...आखिर कब तक दबी रह पाएंगी...नारी-मन के अंतस की भावनाओं को बेहतर तरीके से टटोला गया है...इस कविता में
यादें
ReplyDeleteजब पीड़ा का दमन थाम लेती हैं
तो इंसान को
ऐसी कशमकश हवाले कर जाती हैं ... !
आंसू बह लें , धुल जाए सब , अच्छा है
हम अपना घर-आँगन उजला रखते हैं
sunder bhavnao ke sath sunder rachna
ReplyDeleteइसमें नया क्या है जब इतना बड़ा दुःख मन में पाले बैठे है तो कभी तो उस ज्वालामुखी को फटना हीहोगा|आपकी रचना के पात्र इतने अधिक समझौतावादी हो गए हैं कि वे स्वयं अकेले तिनके की तरह नितांत असहाय और अकेले होजाते हैं और मेरे जैसे पाठकों को बहुत ही रुला जाते हैं | इतना दुःख इत्तना आवेग इसे जल्द से जल्द बाहर निकालना ही होगा वरन मन की सुंदरता धूमिल होती चली जाएगी|
ReplyDeleteकिसी नें कहा है -सत्य हैरान हो सकता है परेशान नहीं |आप की कविता के भाव रुला देते हैं |
ReplyDeleteवर्षों से संचित
ReplyDeleteआँसुओं की झील
की दीवारें सहसा
कमज़ोर होकर दरक
कैसे गयी हैं कि
ये आँसू प्रबल वेग के साथ
पलकों की राह
बाहर निकलने को
आतुर हो उठे हैं !
आप जब भी लिखती है बेहतरीन लिखती है..बहुत सुंदर..लाजवाब।
बहुत लाबा हे जी आप की इस भाव पुर्ण कविता मे , इसी लिये कहते हे कि आपस का मन मुटाव साथ साथ ही निकाल लेन चाहिये, वरना एक दिन जबाला मुखी सा फ़टेगा तो तबाही भी लायेगा, धन्यवाद
ReplyDeleteयादों का ज्वालामुखी न भी फटे तो भी अपने होने का अहसास दिलाता रहता है.तरह तरह की हलचल दिखाता है डराता है .यादों के साथ होते भी अकेले होने का अहसास कराता है.बेहद खूबसूरत अभिव्यक्ति.
ReplyDeleteवर्षों से संचित
ReplyDeleteआँसुओं की झील
की दीवारें सहसा
कमज़ोर होकर दरक
कैसे गयी हैं कि
ये आँसू प्रबल वेग के साथ
पलकों की राह
बाहर निकलने को
आतुर हो उठे हैं !
बहुत ही गहरने भावों के साथ सशक्त रचना ।
wah.bhawon ka ambaar laga di hain aap aaj.....bemisaal.
ReplyDeleteअंतरतम की
ReplyDeleteगहराइयों में दबे
मेरे सुषुप्त ज्वालामुखी में
घनीभूत पीड़ा का लावा
सहसा ही व्याकुल होकर
करवटें क्यों
बदलने लगा है !
अत्यंत मार्मिक रचना , बधाई
sadhna ji aajkal bhookamp bahut aa rahe hain so aapki varshon se sanchit aansuon ki zheel ki diwaron ka kamzor padna vazib hai. ya fir aisa tabhi sambhav hai jab koi apna dard samajhne wala mil jaye to sara aansuo ka vaid aatur ho uthta hai aur mumkin hai jwalamukhi lava bhi karvate lene lage. tab aisi sthiti me apke sare jatan, sare intzam vyarth hi jane hain. shok mat kijiye aur analyse kijiye ki asal me hua kya hai?????? ha.ha.ha.
ReplyDeleteस्निग्ध मोती अंगारे बन . अंतर्मन में दहकती ज्वाला को पुरे वेग से प्रज्ज्वलित कर रहे है . लावा निकल जाय तो ही अच्छा . आखिर कब तक कोई उसके ताप को सहे . सुन्दर और अर्थपूर्ण रचना के लिए आभार .
ReplyDelete@आशुतोष जी
ये रचना जयशंकर प्रसाद जी की है . आंसू से उद्घृत है .
मेरे संयम,
ReplyDeleteमेरी साधना,
मेरी तपस्या को
यूँ विफल करना था !
बहुत गहरे भाव...बहुत गहरी भावाभिव्यक्ति....