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Monday, June 27, 2011

अंगारे


कविवर पन्त जी की अत्यंत हृदयग्राही पंक्तियाँ -
"वियोगी होगा पहला कवि
आह से निकला होगा गान ,
उमड़ कर आँखों से चुपचाप
बही होगी कविता अनजान !"
आज के सन्दर्भों में शायद अपनी प्रासंगिकता खो रही हैं ! इसीसे प्रेरित हो इस रचना ने आकार लिया है !

अंगारे

हथेलियों पर रखे अंगार को मैंने

बड़े जतन से अपनी मुट्ठी में

बंद कर लिया है !

जलन से बेचैन अपने चहरे पर

बिखर आये पीड़ा के भावों को

सायास मुस्कराहट में

बदल लिया है !

अकथनीय दर्द से व्याकुल

कंठ से फूटती करुण चीत्कार को मैंने

भैरवी के कोमल स्वरों में ढाल

सुरीली रागिनी में

रूपांतरित कर लिया है !

इस चाहत के साथ कि

किसीकी भी नज़र

इस बाह्य आवरण को भेद कर

इन अंगारों पर ना पड़े,

मैंने अपनी सुकुमार भावनाओं की

राख तले उन्हें बड़े जतन से

ढँक दिया है !

ये अंगारे सदियों से

ना सिर्फ मेरी हथेलियों को वरन

मेरे उर, अंतर, आत्मा, चेतना

सभी को झुलसा रहे हैं और

सदियों से इस पीड़ा को मैं

दाँतों तले अपने अधरों को दबाये

चुपचाप झेल रही हूँ ,

क्योंकि आँखों से उमड़ी कविता पढ़ना

अब किसीको अच्छा नहीं लगता !


साधना वैद

चित्र गूगल से साभार _


21 comments :

  1. क्योंकि आँखों से उमड़ी कविता पढ़ना
    अब किसीको अच्छा नहीं लगता !

    बेहद गहन भावों के साथ मार्मिक शब्‍द रचना ।

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  2. क्योंकि आँखों से उमड़ी कविता पढ़ना

    अब किसीको अच्छा नहीं लगता !
    इतना दर्द है कविता में ....
    हमें तो आपकी हर कविता पढना ...
    उसपर चिंतन करना भी बहुत अच्छा लगता है ...!!
    आप लिखतीं रहें हम पढ़ते रहें ...!!
    शुभकामनायें..!!

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  3. बेहद मार्मिक रचना

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  4. आँखों से उमड़ी कविता पढ़ना
    अब किसीको अच्छा नहीं लगता !

    आंतरिक पीड़ा की दर्दभरी सहज अभिव्यक्ति...
    शुभकामनायें.....

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  5. ना सिर्फ मेरी हथेलियों को वरन

    मेरे उर, अंतर, आत्मा, चेतना

    सभी को झुलसा रहे हैं और

    सदियों से इस पीड़ा को मैं

    दाँतों तले अपने अधरों को दबाये

    चुपचाप झेल रही हूँ ,.... zindagi ko badee gambheerta se lete hue gambheer bhawon ka sanyojan hua hai

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  6. एक कविता में एक वर्ग के इतिहास और वर्तमान को समेट कर रख दिया है. कितना गहरा अहसास है उन संवेदनाओं का , इसी को कहा गया था 'आह से उपजा होगा गान'

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  7. मन में दबी पीड़ा की सशक्त अभिव्यक्ति की है आपने |
    आवरण डालने पर भी मुखौटा कैसा भी हो अंदर की आग दिख ही जाती है |बधाई, एक सच्चाई ली हुई रचना के लिए |
    आशा

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  8. ये अंगारे सदियों से
    ना सिर्फ मेरी हथेलियों को वरन
    मेरे उर, अंतर, आत्मा, चेतना
    सभी को झुलसा रहे हैं और
    सदियों से इस पीड़ा को मैं
    दाँतों तले अपने अधरों को दबाये
    चुपचाप झेल रही हूँ ,
    क्योंकि आँखों से उमड़ी कविता पढ़ना
    अब किसीको अच्छा नहीं लगता !

    सम्वेदनाओं से भरी और टीस से सिसकती रचना...

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  9. क्योंकि आँखों से उमड़ी कविता पढ़ना

    अब किसीको अच्छा नहीं लगता !

    ....
    संवेदनाओं से परिपूर्ण बहुत मार्मिक प्रस्तुति..कितना दर्द भर दिया है हरेक पंक्ति में..आभार

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  10. जलन से बेचैन अपने चहरे पर

    बिखर आये पीड़ा के भावों को

    सायास मुस्कराहट में

    बदल लिया है !


    आप इतनी कुशलता से सम्पूर्ण नारी जाति के मन के भावों को कैसे शब्द दे देती हैं....
    बेहद अर्थपूर्ण और सार्थक कविता...

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  11. nari jeevan ki trasdi ko darshati sunder rachna

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  12. अंगारों से झुलसे तन मन को ढक कर रखा था क्योंकि आँखों से उभरी कविता पढना किसीको अच्छा नहीं लगता ...
    लाजवाब !

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  13. सुन्दर भाव और अभिव्यक्ति के साथ लाजवाब रचना लिखा है आपने! बधाई!

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  14. साधना जी बस इस रचना के लिये एक शेर कहूँगी
    ये दिल पुरानी यादों से बेजार तडपे
    ज्यों राख के नीचे दबे अंगार तडपे।
    इतना मार्मिक्! मत लिखा करें आँखें नम हो जाती हैं। मै पहले भी आयी थी यहाँ मगर लगता है पढ कर पता नही क्या हुया कमेन्ट दिया कि नही याद नही। आपके शब्दों मे डूब कर भला कुछ याद रहता है?\

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  15. इस कविता को एक बार में पढ़ कर समझना कठिन है| यह कविता कई सारी बातें बतिया रही है| दृष्टिकोणों को पुनर्परिभाषित करती यह प्रस्तुति ध्यानाकर्षण करने में सक्षम है|

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  16. ओह .. पीड़ा के भाव लिखा था ..

    पीड़ा के भावों को चेहरे पर न आने देना और सदियों से उर अन्तर और आत्मा का झुलसना ..बहुत मार्मिक अभिव्यक्ति है .. इन सबके बावज़ूद यह सोचना कि आँखोंमें उमड़ी कविता को पढ़ना अच्छा नहीं लगता इस लिए मुस्कान बिखेरना .. बहुत लाजवाब रचना ..

    किसी शायर ने कहा भी है --
    हर वक्त रोने से रोने का सलीका खो दिया
    हर नफ़स के साथ ये दरियादिली अच्छी नहीं ..
    फिर से पोस्ट कर रही हूँ :)

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  17. आपकी किसी नयी -पुरानी पोस्ट की हल चल कल ३० - ६ - २०११ को यहाँ भी है

    नयी पुरानी हल चल में आज -

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  18. साधना जी, माफ़ि चाह्ती हु देरी के लिये.

    ये रचना मैने पड तो उसी दिन लिया था, लेकिन जैसे कि अपनी ही आदत से मजबूर हु कि दूसरी बार पोस्ट पड्ने के बाद टिप्प्डी देती हुं.

    आपकी ऐसी रचनाये जब भी मै पड्ती हुं आपका चेहरा याद आता है और अपनी यादों को सम्बल बना उसमें छिपा दर्द ढुढ्ने लगती हुं. आप की सारी रचनाओं में दर्द की अधिकता होती है.

    संगीता जी का शेर पसन्द आया.

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  19. दाँतों तले अपने अधरों को दबाये

    चुपचाप झेल रही हूँ ,

    क्योंकि आँखों से उमड़ी कविता पढ़ना

    अब किसीको अच्छा नहीं लगता.

    मार्मिक और संवेदना के धरातल पर अच्छी.रचना.

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  20. क्योंकि आँखों से उमड़ी कविता पढ़ना
    अब किसीको अच्छा नहीं लगता !

    आपने सम्पूर्ण नारी जाति के मन के भावों को शब्द दे दिए हैं....बहुत वेदना है इन शब्दों में.......बेहद अर्थपूर्ण और सार्थक कविता...

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