मात्र एक 'शब्द' की
घनघोर टंकार ने
उसकी समस्त चेतना को
संज्ञाशून्य कर दिया
है !
उस एक शब्द का अंगार
सदियों से उसकी
अन्तरात्मा को
पल-पल झुलसा कर
राख कर रहा है !
चकित हूँ कि
बस एक शब्द
कैसे किसी
प्रबुद्ध स्त्री के
चारों ओर
अदृश्य तीर से
हिमालय से भी ऊँची
और सागर से भी गहरी
अलंघ्य लक्षमण
रेखाएं
खींच सकता है
और कैसे किसी
शिक्षित, परिपक्व
नारी की सोच को
इस तरह से पंगु
बना सकता है कि
उसका स्वयं पर से
समस्त आत्मविश्वास,
पल भर में ही डगमगा
जाये और एक
आत्मबल से छलछलाती,
सबल, साहसी,
शिक्षित नारी की
सारी तार्किकता को
अनायास ही
पाला मार जाये !
आश्चर्य होता है की
कैसे वह स्त्री
एक निरीह बेजुबान
सधे हुए
पशु की तरह
खूँटे तक ले जाये
जाने के लिए
स्वयं ही
उस व्यक्ति के पास
जा
खड़ी होती है
जिसका नाम ‘पति’ है
और जिसने
‘पति’ होने के नाते
केवल उस पर अपना
आधिपत्य और
स्वामित्व
तो सदा जताया
लेकिन ना तो वह
उसके मन की भाषा
को कभी पढ़ पाया,
ना उसके नैनों में
पलते
सुकुमार सपने साकार
करने के लिए
चंद रातों की
निश्चिन्त नींदे
उसके लिये जुटा पाया
और ना ही उसके
सहमे ठिठके
मन विहग की
स्वच्छंद उड़ान के
लिए
आसमान का एक
छोटा सा टुकड़ा ही
उसे दे पाया !
बस उसकी एक यही
अदम्य अभिलाषा रही कि
चाहे सच हो या झूठ,
सही हो या गलत
येन केन प्रकारेण
उसे संसार के
सबसे सबल,
सबसे समर्थ और
सबसे आदर्श ’पति’
होने का तमगा
ज़रूर मिल जाये
क्योंकि वह एक
सनातन ‘पति’ है !
साधना वैद
गहन अभिव्यक्ति .....अक्सर ही ऐसा होता देखा गया है ...!!
ReplyDeleteएक शब्द ... हर स्त्री के वजूद को ललकारता हुआ सा ... गहन अभिव्यक्ति
ReplyDelete"आधिपत्य और स्वामित्व" जब तक है यह सिलसिला जारी रहेगा ... गहन भाव...
ReplyDeleteगहन भाव लिये उत्कृष्ट अभिव्यक्ति
ReplyDeleteगहन भावों की बहुत सुन्दर अभिव्यक्ति...
ReplyDeleteबहुत सुन्दर व् सार्थक प्रस्तुति ...
ReplyDeleteगहन भाव लिये उत्कृष्ट रचना, बधाई।,,,साधना जी,,
ReplyDeleterecent post हमको रखवालो ने लूटा
आश्चर्य होता है कि कैसे स्त्री एक निरीह बेजुबान सधे हुए पशु की तरह खूँटे तक ले जाये जाने के लिए स्वयं ही उस व्यक्ति के पास जा खड़ी होती है जिसका नाम ‘पति’ है
ऐसी क्या विवशता ???
आदरणीया साधना जी
रिश्तों में , और वह भी पति-पत्नी के रिश्ते में प्रेम , विश्वास और समर्पण न हो'कर जबरदस्ती , अविश्वास और घृणा का ज़रा-सा अंश भी है तो वह धोखा है … केवल स्त्री के साथ ही नहीं ,पुरुष के साथ भी !!
♥ तअर्रुफ़ रोग़ हो जाए तो उसको भूलना बेहतर
♥तअल्लुक़ बोझ बन जाए तो उसको तोड़ना अच्छा
♥ वो अफ़साना जिसे अंज़ाम तक लाना न हो मुमकिन
♥ उसे इक ख़ूबसूरत मोड़ दे'कर छोड़ना अच्छा
रचनाकार समाज में जो देखता ,महसूस करता है वही तो देता है अपनी रचना में…
अफ़सोस ! लोग जीवन जीने की कला भूलते जा रहे हैं … इसका चित्रण आपकी कविता में हुआ है …
शुभकामनाओं सहित…
बहुत बढ़िया आंटी
ReplyDeleteसादर
jab tak yeh samaj purush pradhaan rahega is ek shabd ka mahatv u hi kaayam rahega.....ab istri ko sochna hai.....
ReplyDeleteबहुत ही गहरे भावो की अभिवयक्ति......
ReplyDeleteमित्रों!
ReplyDelete13 दिसम्बर से 16 दिसम्बर तक देहरादून में प्रवास पर हूँ!
इस प्रविष्टी की चर्चा कल रविवार (16-12-2012) के चर्चा मंच (भारत बहुत महान) पर भी होगी!
सूचनार्थ!
http://www.parikalpnaa.com/2012/12/blog-post_9880.html
ReplyDeleteएक शब्द .... दिनोंदिन मिलकर कई शब्द
ReplyDeleteमेरी प्रार्थना के वक़्त में भी
मेरे दिलोदिमाग को मथते हुए
मुझे शून्य में ले जाते हैं
मैं तलाशने लगती हूँ अपनी जिंदा लाश
जो दफ़न है कई सालों से
अपने सुनहरे सपनों के आँगन में !
जब जब गुजरती हूँ उस आँगन से
मैं थाम लेती हूँ बसंत की डालियों को
पतझड़ से शब्द निःशब्द बहते हैं ...
मैंने तो बसंत को जी भरके जीना चाहा था
पर आँधियों ने ऋतुराज को स्तब्ध कर दिया
और आतंक के काँटों ने गुलमर्ग सी चाह को
लहुलुहान कर दिया !
रक्तरंजित पांव के निशाँ
शब्द बन उगते हैं
मन की घाटियों में चीखें गूंजती हैं
.....
तब जाकर एक सुबह जीने लायक बनती है !!!
ispasht aur satik-****
ReplyDeleteक्या कहूँ आज इस रचना के लिये ?
ReplyDeleteनिशब्द कर दिया……………
गंभीर विषय. यह सिलसिला तो कब से चला आ रहा है और पता नहीं कब तक ऐसे ही चलता रहेगा.
ReplyDeleteसुंदर प्रस्तुति.
पुरुष के अहम की इन्तहा नहीं ... ओर नारी मन के विस्तार की सीमा नहीं ...
ReplyDeleteगहरे भाव लिए रचना ...
एक ऐसा रिश्ता जो स्त्री के लिए स्वर्ग भी बन जाता है और नर्क भी जिस रिश्ते में आधिपत्य भारी हो जाता है वो रिश्ता धीरे धीरे खोखला हो जाता है ,बहुत गहन विचार से सराबोर अभिव्यक्ति बहुत खूब
ReplyDeleteबढ़िया कविता |मैं आज ही सरिस्का से बापिस आई हूँ |इस लिए गुस्सा मत होना |
ReplyDeleteआशा