मैं
चल तो रही थी
जीवन
के दुर्गम मार्ग पर
घने
बीहड़ में,
घनघोर
अँधेरे में !
पैरों
में पड़े छालों की भी
कहाँ
परवाह थी मुझे,
असह्य
श्रम से
क्लांत
तन को मैंने
तनिक
भी विश्राम कब
लेने
दिया था !
इतने
वर्षों में
काँटों
की सुई से ही
अपने
हृदय के जख्मों को
सी
लेना भी मैंने
सीख
लिया था !
ज़हर
से कड़वे आसव से
अपनी
हर व्याधि का
इलाज
कैसे किया जाता है
यह
भी मैंने
जान
लिया था !
फिर
जाने कैसे
दूरस्थ
उपवन से आती
सुरभित
सुमनों की
भीनी
सी सुगंध के
आभास
मात्र ने मुझे
इस
तरह सम्मोहित
कर
दिया कि
अपने
विचलन पर
मैं
स्वयं अचंभित भी हूँ
और
लज्जित भी !
मैं
कैसे भ्रमित हो
अपना
प्राप्तव्य भूल बैठी !
जीवन
से किस अलभ्य
उपहार
की आकांक्षा में
अपने
कर्तव्य से मैं
इस
तरह भटक गयी !
किसी
और की राह में बिछे
फूलों
को देख मैं कैसे
दिग्भ्रमित
हो
अपनी
काँटों से भरी
राह
छोड़ उस
मरीचिका
के पीछे
भागने
लगी जो मेरी
नियति
का हिस्सा ही नहीं !
मुझे
राह दिखाने का
शुक्रिया
ऐ दोस्त !
आज
लंबी नींद के बाद
मेरी
आँख खुली है !
अपने
बिछौने के
सारे
नश्तरों की धार को
आज
एक बार फिर
मैंने
अच्छी तरह से
पैना
कर लिया है !
और
अब मुझे ऐसे ही
नींद
नहीं आ जायेगी
यह
मेरा वादा है तुमसे !
साधना
वैद
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