ढूँढती
आ रही हूँ
बचपन से
अपने वजूद को
ज़िन्दगी
के हर कोने में झाँक आई
लेकिन अभी
तक वो जगह नहीं मिली
जहाँ
मैं अपने आप से
दो घड़ी
के लिए ही सही
कभी मिल
पाती !
बचपन
में माँ की लोरियों में
ममता
भरी थपकियों में
प्यार भरी
मनुहारों में ढूँढा खुद को
बहुत
कुछ मिला वहाँ
लेकिन
मैं कहाँ थी !
बाबूजी की
अनुशासन में पगी हिदायतों में
भैया की
संरक्षणात्मक वर्जनाओं में
दीदी की
दुलार भरी झिड़कियों में भी
बहुत
खोजा अपने वजूद को
लेकिन
वहाँ भी चाबी से चलने वाली
एक खूबसूरत
गुड़िया ही दिखी बस !
मैं
कहाँ थी !
विवाहोपरांत
जब बाहर निकली
उस
विराट वटवृक्ष की छाया से
तो मन
में अटूट विश्वास था कि
अपने
अस्तित्व को अब तो मैं
ज़रूर पा
सकूंगी लेकिन
गृहस्थी
की शतरंज की बिसात पर
मेरी
हैसियत उस अदना से प्यादे की थी
जिसके
कर्तव्य तो अनंत होते हैं
लेकिन
अधिकार अत्यंत सीमित !
परिवार
के हर सदस्य की सुख सुविधा,
आवश्यकता,
इच्छा की पूर्ति करते हुए
चलती रही दिन रात इधर से उधर
शतरंज के चौंसठ खानों में और
ढूँढती रही अपने टूटे
सपनों की किरचों
और धज्जी
हुए अरमानों के रेशों में
अपने खोये हुए अस्तित्व को
लेकिन
कहाँ पा सकी उसे वहाँ भी !
जीवनसाथी
के
कभी
मृदुल तो कभी कठोर
कभी
मधुर तो कभी तिक्त
आदेशों के
अनुपालन में
तो कभी उनके
चुने हुए मार्ग पर
एक
आदर्श जीवनसंगिनी की तरह
उनका
अनुगमन करते रहने में
सारा
जीवन यूँ ही बीत गया
लेकिन
मेरा अस्तित्व,
वह कहाँ
मिला मुझे ?
जिससे
भेंट हुई वह तो बस
एक जीती
जागती
कठपुतली
मात्र थी !
अब
वृद्धाश्रम के निर्जन निसंग कोने में
धुँधलाती
दृष्टि से अपनों की राह तकती
और काँपते
हाथों से माला फेरती
इस बेआस
जर्जर काया में
मैं
अपना अस्तित्व ढूँढने का
प्रयास
कर रही हूँ तो मेरे हाथ
यहाँ भी
निराशा ही लगनी है !
क्योंकि
बुझी आग पर भी कभी
रसोई पका करती है !
साधना
वैद
No comments :
Post a Comment