एक छोटा सा
बेहद खूबसूरत सा मकान हूँ मैं
पर देखो आज कितना सूना
कितना वीरान हूँ मैं !
समेटे हुए तमाम जहान का
दर्द अपने सीने में
कितना ग़मज़दा
कितना हैरान हूँ मैं !
एक छोटा सा मकान हूँ मैं !
मेरे बचपन की यादें
जवानी के किस्से
ग़ज़ब शान ओ शौकत से
लबरेज़ हिस्से
आतंकी फ़िज़ा में
कहीं सो गए हैं
खामोश हैं हवाएं और
गुमसुम दरीचे
गुज़रे ज़माने के वो बुलंद निशाँ
या खुदा जाने
कहाँ खो गए हैं !
उनके खोने से कितना
परेशान हूँ मैं
वादी में तनहा खड़ा
एक छोटा सा मकान हूँ मैं !
कितनी रौनक हुआ करती थी
कितने कहकहे गूँँजा करते थे
कितनी खुशबुएँ उड़ा करती थीं
कितने पकवान बना करते थे
कितने मीठे मीठे गीत
हवा गुनगुनाती थी
सैलानियों की एक टोली
जाती थी कि दूसरी आ जाती थी !
तब सरगोशियाँ थीं अब खामोशी है
तब इबादत थी अब मनहूसी है
पहले था गुल ओ गुलज़ार
अब आतंक की पहचान हूँ मैं
एक छोटा सा मकान हूँ मैं !
भेदी घर में घुस कर बैठे
हर कोना नापाक किया
फूल बने बम नगमें गोली
यह कैसा इन्साफ किया
पकवानों से जाने क्यों
बारूद की खुशबू आने लगी
गीतों में जीवन की जगह
मातम की धुन तड़पाने लगी !
कभी हुआ करता था ज़िंदा
लेकिन अब बेजान हूँ मैं
एक छोटा सा मकान हूँ मैं !
मेरे मन का कमरा कमरा
गोली से है दाग दिया
मेरे नाज़ुक एहसासों को
रौंद के क्यों बर्बाद किया
लगा दिया है साख पे बट्टा
मुस्कानों पर पहरा है !
आता नहीं है डर कर कोई
गुलशन था अब सहरा है !
अपनी इस बदनामी से
कितना पशेमान हूँ मैं
एक छोटा सा मकान हूँ मैं !
मौला मेरे रहम कर मुझ पर
दूर हटा दे ये तोहमत
लौटा दे मेरा खोया वकार
कर दे दफा तू हर लानत
कर दे रौशन कमरा-कमरा
हों खुशियों के फूल यहाँ
दूर दूर तक मायूसी की
बात करे ना कोई यहाँ !
सारे जहाँँ की जन्नत और
मोहोब्बत का पैगाम हूँ मैं
एक छोटा सा मकान हूँ मैं !
साधना वैद
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